सुषमा भंडारी
आगे -आगे क्यूं तू भागे
होड़ मची है जीवन में
ठहर जरा ओ मूर्ख प्राणी
देख जरा तू दर्पण में
वर्षा कितना बोझ उठाती
बादल बनकर रह्ती है
सब की प्यास बुझाने को वो
बूंद- बूंद बन बहती है
तू केवल अपनी ही सोचे
रहता फिर भी उलझन में
आगे -आगे क्यूँ तू----
वीरों से कुछ सीख ले बन्दे
वतन की खातिर जीता है
वतन की मिट्टी वतन के सपने
जग की उधडन सीता है
सर्दी -गर्मी सब सीमा पर
सीमा पर ही सावन में
आगे-आगे क्यूँ तू-----
जीवन मूल्य टूट रहे सब
आओ इन्हें बचाएँ हम
संस्कार के गहने पहनें
सुर- संगीत सजायें हम
मात-पिता ही सच्चे तीर्थ
सुख है इनके दामन में
आगे-आगे क्यूँ तू----
चलना है तो सीख नदी से
चलती शीतल जल देती
लेकिन मानव तेरी प्रवृति
बस केवल बस छल देती
सूरज किरणें फैला देता
सब प्राची के प्रांगण में
आगे-आगे क्यूँ तू---
जीवन तो त्यौहार है प्राणी
नित नित रँग बदलते हैं
होली में सतरंगी दुनिया
दीप जले दीवाली में
हरदिन खुशियां त्योहारों सी
प्रेम-प्यार हो आंगन में
आगे आगे क्यूं-----'
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