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लघुकथा // कोहराम




●●●डॉ• मुक्ता ●●●

रेवती के पति का देहांत हो गया था। अर्थी उठाने की तैयारियां हो रही थी। उसके तीनों बेटे गहन चिंता में मग्न थे। वे परेशान थे कि अब मां को कौन ले जाएगा? उसका बोझ कौन ढोयेगा? उसकी देखभाल कौन करेगा?  इसी विचार-विमर्श में उलझे, वे भूल गए कि लोग अर्थी को कांधा देने के लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

श्मशान से लौटने के बाद रात को ही तीनों ने मां को अपनी-अपनी मजबूरी बता दी कि उनके लिए वापस जाना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने मां को आश्वस्त किया कि वे सपरिवार तेरहवीं पर अवश्य लौट आएंगे। 

उनके चेहरे के भाव देख कोई भी उनकी स्थिति का अनुमान लगा सकता था। उन्हें देख ऐसा लगता था, मानो वे एक-दूसरे से पूछ रहे हों, 'क्या इंसान इसी दिन के लिए बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करता है? क्या माता-पिता के प्रति बच्चों का कोई दायित्व नहीं है?' वे आंखों में आंसू लिए परेशान से एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे और उनके भीतर का कोहराम थमने का नाम नहीं ले रहा था।

ऐसी स्थिति में रेवती को लगा कि सिर्फ़ पति ही नहीं गए, शेष संबंधों की भी डोरी  खिंच गई है...उसके टूटने की आशंका बलवती होने लगी है।

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