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स्कूल बंदी में 80 प्रतिशत बच्चे शिक्षा से वंचित

० नूरुद्दीन अंसारी ० 

नई दिल्ली: हाल के राष्ट्रीय सर्वे बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में इंटरनेट का उपयोग दोगुना से अधिक बढ़ा है और कोविड की बंदी ने कनेक्टिविटी की मांग बहुत बढ़ाई है। 15-65 आयु वर्ग के 49 प्रतिशत लोगों ने इंटरनेट उपयोग करने की जानकारी दी जबकि 2017 के अंत में 15-65 आयु वर्ग में केवल 19 प्रतिशत ने यह जानकारी दी थी। इसका अर्थ 2021 में 61 प्रतिशत परिवार ने इंटरनेट का उपयोग किया जबकि 2017 में केवल 21 प्रतिशत ने इसका लाभ लिया।

दोनों सर्वे डिजिटल नीति के मुद्दों पर कार्यरत क्षेत्रीय थिंक टैंक एलआईआरएनईएशिया ने किए हैं। 2021 के लिए एलआईआरएनईएशिया ने नई दिल्ली के आर्थिक नीति के थिंक टैंक आईसीआरआईईआर से भागीदारी की है।2021 का सर्वे बताता है कि 2020 और 2021 में 130 मिलियन से अधिक यूजर ऑनलाइन हुए। 2020 में इंटरनेट से जुड़े लगभग 80 मिलियन में 43 प्रतिशत या 34 मिलियन से अधिक लोगों ने कोविड बंदी के कारण इंटरनेट इस्तेमाल करने की जानकारी दी। . आज जब लगभग आधी आबादी इंटरनेट उपयोग कर रही है यह पूछना लाजमी है कि राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय लॉकडाउन के विभिन्न दौर (2020 और 2021) में इंटरनेट से भारतीयों को अध्ययन, काम और अन्य सेवाओं में कितनी मदद मिली। हम ने पाया वास्तव में डिजिटल कनेक्टिविटी से शिक्षा, कार्य, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आदि कई लाभ आसानी से मिले।

चैंसठ प्रतिशत (64 प्रतिशत) परिवार जिनके बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं सभी के घरों में इंटरनेट की सुविधा थी, जबकि शेष 36 प्रतिशत इससे वंचित थे। पहले समूह (इंटरनेट वाले परिवार) के 31 प्रतिशत बच्चों को किसी न किसी माध्यम से दूरस्थ शिक्षा मिलने की संभावना थी, जबकि दूसरे समूह (इंटरनेट रहित परिवारों) के केवल 8 प्रतिशत ने किसी माध्यम से दूरस्थ शिक्षा मिलने की पुष्टि की। स्वास्थ्य सेवा में भी ऐसा ही रुझान देखा गया। महामारी के कठिन दौर में स्वास्थ्य सेवाओं के जरूरतमंद लोगों में 65 प्रतिशत इंटरनेट से जुड़ने में सक्षम थे जबकि इंटरनेट से वंचित केवल 52 प्रतिशत लोग स्वास्थ्य सेवा लेने में सक्षम रहे।

लेकिन आंकड़ांे को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि ये असमानताएं डिजिटल डिवाइड को आज भी प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए इंटरनेट युक्त परिवार के बच्चों को रिमोट माध्यम से सीखने की अधिक सुविधा थी। ये अधिक सम्पन्न, शहरी परिवार थे जिनके घर के मुखिया अधिक शिक्षित थे और उनके पास बड़े स्क्रीन वाले उपकरण (जैसे कंप्यूटर, टैबलेट) थे। दूसरी तरफ शिक्षा से वंचित रह गए अधिकतर  परिवार साधन हीन थे जिनके पास बड़े स्क्रीन वाले उपकरण नहीं थे (वे मोबाइल फोन पर निर्भर थे)। कोविड की बंदी में दूर से काम करने की बात आई तो केवल 10 प्रतिशत लोगों ने खुद इसमें सक्षम बताया। जाहिर है इनमें उच्च प्रतिशत वित्त, बीमा, सूचना प्रौद्योगिकी, लोक प्रशासन और अन्य प्रोफेशनल सेवाओं में काम करने वाले लोग थे।

सर्वे का संचालन एशिया प्रशांत क्षेत्र में डिजिटल नीति के मुद्दों पर कार्य क्षेत्रीय थिंक टैंक एलआईआरएनईशिया और नई दिल्ली आधारित नीति-उन्मुख आर्थिक नीति थिंक टैंक आईसीआरआईईआर ने किया। सर्वे के नतीजे 12 नवंबर 2021 के एक वर्चुअल आयोजन में जारी किए गए। इसमें सरकारी, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज के प्रमुख प्रतिनिधियों की पैनल चर्चा भी हुई। इसके भागीदारों में उल्लेखनीय हैं डॉ. जयजीत भट्टाचार्य (अध्यक्ष, सेंटर फॉर डिजिटल इकोनॉमी पॉलिसी रिसर्च), अभिषेक सिंह (अध्यक्ष और सीईओ, राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस डिवीजन, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय), निशांत बघेल (प्रौद्योगिकी नवाचार निदेशक, प्रथम) और हेलानी गलपया (सीईओ, एलआईआरएनईएशिया)। चर्चा का संचालन डॉ. रजत कथूरिया (वरिष्ठ अतिथि प्रोफेसर, आईसीआरआईईआर) ने किया।

हेलानी गलपया, सीईओ, एलआईआरएनईएशिया ने कहा, ‘‘यदि केवल यह देखें कि कितने ज्यादा लोग इंटरनेट से जुड़े तो भारत की प्रगति बहुत अच्छी दिखेगी। लेकिन जन-जन का ‘डिजिटल इंडिया‘ बने इसके लिए पहले व्यवस्थित और संरचनात्मक बदलाव करने होंगे।’’ उन्होंने बताया, ‘‘लॉकडाउन में घर से काम नहीं करने वाले सात प्रतिशत लोगों ने बताया कि उनके सुपरवाइजरों ने इसकी अनुमति नहीं दी वरना यह मुमकिन होता। इसलिए आज कार्य करने की जगह को आधुनिक, हाइब्रिड बनाने की जरूरत है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में कुछ स्कूल ही पहले (2020) लॉकडाउन में दूरस्थ शिक्षा के लिए तैयार हुए थे। ऐसे में जब तक डिजिटल तकनीक को दैनिक शिक्षा में शामिल नहीं करते लॉकडाउन या अन्य संकट की स्थिति में डिजिटल साधनों का एकदम से उपयोग करना मुश्किल होगा।’’

आईसीआरआईईआर के सीनियर विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. रजत कथूरिया ने कहा, ‘‘इस सर्वे के परिणाम हमारे अनुमान की पुष्टि करते हैं। महामारी के दौर में डिजिटल सेवाओं की मांग बहुत बढ़ी है। यह अनुमान से कहीं अधिक है और सकारात्मक है। हालांकि यह भी स्पष्ट है कि डिजिटलीकरण का बढ़ता लाभ सभी भौगोलिक परिस्थिति और आबादी में एक समान नहीं पहंुच रहा है। लेकिन हमें यह स्वीकार्य नहीं कि न्यून आय समूहों और पिछड़े क्षेत्रों में यह मंद गति से पहंुचे और इसके लिए नीतिगत सहयोग की आवश्यकता होगी। समाज पर सार्थक और प्रासंगिक प्रभाव के लिए इन नीतियों में स्थानीय सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों पर ध्यान देना होगा जैसे कि बुनियादी व्यवस्था की उपलब्धता, संबंधित और स्थानीय भाषा की सामग्री का उपलब्ध होना। डिजिटल विकास में सभी के समावेश में इस सुविधा की सुलभता को विस्तार से समझना होगा। इसका अर्थ है कि फाइबर बिछाना और सस्ते स्मार्टफोन प्रदान करना निस्संदेह जरूरी है पर यह पर्याप्त नहीं है।’’

शोध के बारे में: यह शोध आईडीआरसी के वित्तीयन से एलआईआरएनईएशिया और आईसीआरआईईआर ने किया है। इसके लिए तीन क्षेत्रीय थिंक टैंक: एलआईआरएनईएशिया, रिसर्च आईसीटी अफ्रीका और इंस्टीट्यूटो डे एस्टुडियोस पेरुनोस को संयुक्त अनुदान दिए गए। सर्वे के लिए राष्ट्रीय नमूने में पूरे भारत के 350 गांवों और वार्डों समेत 7,000 घर शामिल किए गए। नमूना लेने की पद्धति इस तरह की है कि राष्ट्र स्तर पर लक्ष्य समूह (15-65 वर्ष के लोग) का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो। इसमें 95 प्रतिशत आत्मविश्वास स्तर और ़ध्.1ण्7ः त्रुटि की गुंजाइश थी। ये आंकड़े राष्ट्र और राज्य स्तर, लिंग और सामाजिक-आर्थिक स्तर पर असमेकित थे। सर्वे में शामिल 4 प्रमुख राज्य दिल्ली, असम, तमिलनाडु और महाराष्ट्र थे।

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