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समीक्षा ---हिन्दू संस्कृति में त्योहार व व्रत-उपवास का महत्व


सुरेखा शर्मा / समीक्षक ० 

पुस्तक नाम -भारतीय संस्कृति के सोपान
लेखक -मोहन कृष्ण भारद्वाज
प्रकाशक--उमंग प्रकाशन
संस्करण --2019 पृष्ठ संख्या - 112 मूल्य --350₹

हिन्दू संस्कृति में व्रत-उपवास व त्योहारों पर प्रकाश डालती पुस्तक
कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती
करमूले तु गोविन्दं प्रभाते कर दर्शनं
समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम् पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।


हिन्दू धर्म और संस्कृति विश्व में अनादि है।यह अनश्वर है अर्थात् सनातन है,शाश्वत है।जिस संस्कृति में प्रातःकाल उठते ही अपने हाथों को देखने की व पृथ्वी पर पाँव रखने के लिए भी आज्ञा लेकर क्षमा माँगने की परंपरा हो ऐसी भारतीय संस्कृति को शत- शत प्रणाम । अतः इसी भारतीय संस्कृति व महान हिन्दू धर्म के पर्व-त्योहारों के विषय में विस्तृत जानकारी देती हुई पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के सोपान' लेखक मोहन कृष्ण भारद्वाज ने पाठकों को सौंपी है। यह हिन्दूत्व के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर का ,हिन्दू -पर्वों का परिचय प्राप्त कराने का छोटा सा लेखक का प्रयास है। निस्संदेह लेखक सफल भी रहे हैं। लेखक का बाल्यकाल से ही आध्यात्मिकता की ओर रूझान रहा है। सुशिक्षित, संभात, परिवार में जन्मे लेखक के जीवन पर हिन्दी -संस्कृत के विद्वान अपने पिता का प्रभाव रहा है।जिसका उदाहरण लेखक की कृति में मिलता है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को उजागर करती व भ्रांत धारणाओं,मान्यताओं और विचारों का खंडन कर भारतीय पर्व व व्रत-उपवास के विषय में परिपूर्ण परिचय कराती यह पुस्तक संस्कृति की धरोहर है। यह लेखक का शोघ परक अध्ययन नहीं, धर्म की गहराइयों से अपने खजाने में हीरे -मोती बटोरने का प्रयास भी नहीं ,मात्र अपने अल्प मात्र ज्ञान के मंथन से नवनीत प्राप्त करने का प्रयास है क्योंकि लेखक बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृति के रहे हैं,साथ ही शिक्षक भी।
'
भारतीय संस्कृति के सोपान ' में विभिन्न व्रतों एवं उपवासों का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए जीवन में उनके महत्व को रूपायित किया है । पुस्तक 'व्रत एवं उपवास में फलाहार' शीर्षक से शुरू होकर 'शिक्षक दिवस आत्मनिरीक्षण दिवस' तक 21 शीर्षकों को अपने अंदर समेटे हुए है । प्रत्येक विषय की विस्तृत जानकारी दी गई है । भारतीय -संस्कृति आनन्द वाहिनी है,उल्लास और ऊर्जा की सलिला है।हमारे सभी पर्व मंगलकामना से ओत-प्रोत हैं।इसलिए यहाँ हर दिन पर्व है, हर रोज पूजा -अर्चना की परंपरा है । भारतवर्ष को त्योहारों का सागर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । इनमें चार होली, रक्षाबंधन, दशहरा और दीपावली । 'होली नवान्नेष्टि यज्ञ ' कहलाता है ।

होली पर्व की विस्तृत जानकारी लेख से अर्जित की जा सकती है ---
'बरस- बरस पर आती होली, रंगों का त्योहार अनूठा
चुनरी इधर , उधर पिचकारी, गाल-भाल का कुमकुम फूटा।

भारत का सर्वमान्य संवत् विक्रम संवत् है। विक्रम -संवत् सूर्य -सिद्धांत पर चलता है ।इसी के अनुसार नव वर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।ब्रह्म पुराण के अनुसार इसी दिन ही सृष्टि का आरंभ हुआ था । भारतीय संस्कृति के अनुसार इसी दिन को नव वर्ष का प्रथम दिन मानकर सबके लिए मंगलकामना की जाती है।

युग -युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियों के उच्च विचार
धीरों वीरों के व्यवहार है निज भारतीय संस्कृति के सोपान ।।


हमारा मन परिवर्तन चाहता है।एक ही स्थिति हमें नीरसता की ओर ले जाती है और यही नीरसता मृत्यु है, उदासीनता है जो जीवन की उमंग खत्म कर देती है। इसी उदासीनता को खत्म करने के लिए त्योहार मनाने की प्रेरणा लेखक ने दी है। ये पर्व -त्योहार जीवन में ज्योति स्तंभ हैं। अमृत- रस पान कराते हैं।क्रमशः लगभग सभी पर्वों की महत्वपूर्ण बातों से परिचय करवाने में लेखक ने अपना दायित्व बखूबी निभाया है। 

गुरु पर्व, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, दीपावली के पंच पर्व से लेकर मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि , पितृ पक्ष में श्राद्ध क्यों और कैसे ?, होली , यहां तक कि शिक्षिक दिवस को भी पर्व के रूप में वर्णित किया है लेखक ने । यहां पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि लेखक शिक्षा जगत से जुड़े हुए हैं और इस लेख के माध्यम से सभी शिक्षकों को आत्मनिरीक्षण करने की सलाह देते हैं कि अब समय आ गया है हम शिक्षकों को आत्मनिरीक्षण करना होगा। हम कहां अपने कर्तव्य से विमुख हुए ? क्यों आज शिष्य अनुशासनहीन हो रहा है? क्या कारण है आज समाज में शिक्षक का वो आदर नहीं रहा जो भारतीय संस्कृति में होता था ? आज कहां खो गया वो शिष्य जिसने तनिक भी विचार किए गुरु दक्षिणा में अंगूठा काट कर गुरु चरणों में अर्पित कर दिया था ? हम सारा दोष छात्रों पर मढ़कर अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकते।आत्मनिरीक्षण करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब शिक्षक समाज में अपना सम्मान खो देगा।

रक्षाबंधन और भाई दूज, ये दो पर्व दो सहोदर भाई-बहन को परस्पर मिलन करवाने वाले पावन पर्व हैं।भारतीय संस्कृति की विशेषता ने इन्हें मंगल-मिलन की विशेषता से अमरत्व प्रदान किया है---कच्चे धागों में बहनों का प्यार है,ऐसा ये राखी का त्योहार है ।'भाद्रपद मास की कृष्ण -पक्ष की अष्टमी को मनाया जाने वाला त्योहार जन्माष्टमी है।इस दिन सोलह कला संपूर्ण तथा भगवद्गीता के गायक योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था । इस अवतरण में प्रभु का उद्देश्य था -
'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्'

भारतीय पर्वों में विविधता का इन्द्रधनुषी सौन्दर्य है।इस पर्व के मनाने,उपवास रखने की विधि-विधान से फलाहार लेने की विधि का वर्णन है। इन सभी विधियों में एक ही उद्देश्य है -'पति का मंगल।'कार्तिक मास व कार्तिक स्नान के महत्व पर भी लेखक की लेखनी से मन के उद्गार व्यक्त हुए हैं जिन्हें पढ़कर पाठक लाभान्वित हो सकते हैं।कार्तिक मास में आने वाला विशेष पर्व है 'दीपावली' । प्रकाश का पर्व है 'दीपावली।' तमसो मा ज्योतिर्गमय' का महान उत्सव है।यह एक दिवसीय पर्व नहीं है यह पांच दिन तक चलने वाला पर्व है।लेखक द्वारा अन्नकूट और गिरिराज पूजन का महत्व भी बताया गया है जो हर भारतीय के लिए जानना अति आवश्यक है । लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए विशेष पूजा की जाती है--या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनम: ।।

भारतीय संस्कृति के सोपानों की यात्रा की जाए और मकर संक्रांति सोपान पर बैठकर गंगा स्नान का आनंद न लिया जाए तो यात्रा अधूरी -सी लगती है।अनेक प्रातों में भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न नामों से मनाया जाने वाला पर्व 'मकर संक्रांति ' सूर्य पूजा का पर्व है । सूर्य कृषि के देवता हैं और भारत कृषि प्रधान देश है।इस दिन भगवान सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं। सूर्य देव की पूजा कर भगवान सूर्य के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित की जाती है। तिल -गुड़,मेवा का विशेष महत्व है -
तिलं तूलं च तांबौलं,तरुणी,तप्त भोजपत्र
हेमन्त न सेवन्ते ,तेजस्वी नरा: मन्दिर भागिनः।
पंजाब में 'लोहड़ी ' पर्व के नाम से कुछ इस तरह गा- बजाकर हर्षोल्लास से मनाया जाता है यह त्योहार -- सुन्दर मुन्दरिये ! हो।
तेरा कौन बेचारा ! हो
दे
वों के देवता महादेव की पूजा का विशेष पर्व महाशिवरात्रि व्रत के रूप में मनाने की परम्परा है।
शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्।
आचाण्डाल मनुष्याणां भुक्ति मुक्ति प्रदायकं।।

यह हम सभी जानते हैं कि शिव का प्रधान अस्त्र त्रिशूल अर्थात् इच्छा, ज्ञान और क्रिया रूपी मानवीय तीन शक्तियों का प्रतीक है । त्रिशूल के एक ओर ज्ञान है तो दूसरी ओर इच्छा ,बीच में है क्रिया । जो ज्ञान और इच्छा, दोनों में सामंजस्य स्थापित करती है । ज्ञान, कर्म और इच्छा की व्यापकता पर प्रकाश डालते हुए महाकवि प्रसाद लिखते हैं --- --
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न, इच्छा क्यों पूरी हो मन की ,
एक- दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की ।
शिव को भारतीय -संस्कृति के समन्वयवादी रूप में स्मरण किया जाता, जिनके तेज से जन्मतः विरोधी प्रकृति के शत्रु भी मित्रवत् व्यवहार करते हैं।
भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धाविश्वास रूपिणो।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तः स्थमीश्वरम्।(रामचरित मानस )
पर्व -त्योहारों के साथ - साथ 'अध्यात्म में संख्याओं के प्रयोग का महत्व ' शीर्षक से भी लेखक की लेखनी चली है ।
'दो पक्षी हैं सहज सखा , संयुक्त निरन्तर,
दोनों ही बैठे अनादि उसी वृक्ष पर।'
एक और बानगी देखिए --
सात समन्द की मसि करूँ, लेखनी सब बनराई
धरती सब कागद करूँ ,गुरु गुन लिखा न जाए।

हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का ज्ञान अनंत व अपरिमित है। संस्कृति आत्मा है और सभ्यता शरीर। आत्मा का विस्तृत वितान संस्कृति है,भौतिक विकास का नाम सभ्यता । संस्कृति हमें राह दिखाती है और सभ्यता उस राह पर चलाती है। संस्कृति न हो तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर ही न रहे ।
अपनी संस्कृति का अभिमान, करो सदा हिन्दू सन्तान
सब आदर्शों की वह खान, नर-रत्नत्व करेगी दान ।
'
लेखक ने अपने गंभीर मनन और चिन्तन से ज्ञान -सागर के उस अक्षय भंडार से कुछ बूंदे लेकर इस पुस्तक में समाहित की हैं । आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि पाठक वर्ग इस ज्ञान - सागर में डुबकी लगाकर मोती चुनेगा और उन्हें अपने गले का कंठहार बनाकर जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करेगा तभी लेखक का प्रयास सफल होगा ।लेखक मोहन कृष्ण भारद्वाज के स्तुत्य प्रयास को नमन।वे स्वस्थ एवं दीर्घायु हों।अपनी लेखनी से निरन्तर शब्द साधना रत रहें। शुभकामनाओं के साथ ••••
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