पुस्तक --'यात्रा यूँ चल रही है ' (काव्य संकलन )
लेखिका --कृपाल कौर छाबड़ा
प्रथम संस्करण -2021 पृष्ठ -149
प्रकाशन --गोया पब्लिकेशन नई दिल्ली
'विविध भावों से परिपूर्ण भावनात्मक अभिव्यक्ति '
'अमृत की बरसात है-आत्मसात कर लो।
ब्रह्म मुहूर्त - प्रभु साक्षात है -आत्मसात कर लो।
सुन्दर अति प्रत्यूष मंगलमयी प्रभात-
आत्मसात कर लो।
निरा नूर हो रहा आकाश -आत्मसात कर लो
क्षण -क्षण बदल रही उसकी चित्रकारी
फूलों के रंग विभिन्न क्यारी -क्यारी ।'
ब्रह्म मुहूर्त को आत्मसात करने की प्रेरणा देती हुई उपर्युक्त काव्य पंक्तियाँ वरिष्ठ शिक्षाविद्, उपाधीक्षक पद से सेवानिवृत्त आदरणीया 'कृपाल कौर छाबड़ा' के नवीनतम काव्य संग्रह 'यात्रा यूँ चल रही है ' की कविता 'ब्रह्म मुहूर्त ' शीर्षक से ली गई हैं । ये पंक्तियाँ उनकी संपूर्ण काव्य यात्रा एवं व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है । संवेदनशीलव्यक्ति चाहे जिस परिवेश में रहे अपनी अनुभूतियों को किसी न किसी माध्यम से व्यक्त अवश्य करता है ।इसी सत्य को उद्घाटित करता हुआ प्रतीत होता है काव्य संग्रह 'यात्रा यूं चल रही है ।'
कवयित्री शिक्षा जगत से जुड़ी रही हैं।उन्होंने अपने अनुभवों,अपनी संवेदनाओं एवं गंभीर चिंतन को शब्दों में पिरोकर अपनी अभिव्यक्ति को कविताओं का रूप दिया है । 'यात्रा यूं चल रही है ' काव्य संग्रह छोटी -बड़ी 65 कविताओं का एक ऐसा पुष्पगुच्छ है जो अपनी खुश्बू से पाठकों के मन मस्तिष्क को सराबोर ही नही करेगा अपितु चिन्तन -मनन करने पर भी विवश करेगा । काव्य संग्रह स्वयं में विविध विषयों को समेटे हुए अपने अंदर संकेतों और बिम्बों के साथ दर्द और बेचैनी की छटपटाहट लिये हुए है । सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कवयित्री ने कल्पना की उड़ान भरने के स्थान पर समाज के उस यथार्थ पक्ष को उकेरने का प्रयास किया है जिस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता । निस्संदेह मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सरल व सहज माध्यम है कविता ।
कवयित्री का मन आज के परिवेश में फैले प्रदूषण और विषाक्तता से व्यथित है । यहां प्रदूषण से तात्पर्य वायु प्रदूषण से नहीं अपितु सामाजिक, पारिवारिक सांस्कृतिक ,राजनीतिक प्रदूषण से है ।तभी तो वे कविता 'जन्मदिन मुबारक'
कवयित्री का मन आज के परिवेश में फैले प्रदूषण और विषाक्तता से व्यथित है । यहां प्रदूषण से तात्पर्य वायु प्रदूषण से नहीं अपितु सामाजिक, पारिवारिक सांस्कृतिक ,राजनीतिक प्रदूषण से है ।तभी तो वे कविता 'जन्मदिन मुबारक'
में संदेश देती हुई कहती हैं--
'किसी दामिनी का दामन दागदार न करना
बहन न कहो भले ही प्यार न करना।
चरित्र सबसे बड़ी पूंजी है,याद रहे,
किसी गुड़िया का जीवन तार-तार न करना।
सर्वोच्च पद पाओ जीवन में,शुभ कामनाएँ हमारी ।
सर्वोत्तम सम्मान मिलेगा, पूरी हों सब इच्छाएँ तुम्हारी ।'
'किसी दामिनी का दामन दागदार न करना
बहन न कहो भले ही प्यार न करना।
चरित्र सबसे बड़ी पूंजी है,याद रहे,
किसी गुड़िया का जीवन तार-तार न करना।
सर्वोच्च पद पाओ जीवन में,शुभ कामनाएँ हमारी ।
सर्वोत्तम सम्मान मिलेगा, पूरी हों सब इच्छाएँ तुम्हारी ।'
संग्रह प्रार्थना से प्रारंभ होकर माँ सरस्वती की वन्दना कर 'धन्यवाद' देते हुए अंतिम कविता 'गांव मेरा देश मेरा ' से अलंकृत है।कवयित्री जितनी सहज व सरल व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं उतनी ही सहज और सरल उनकी कविताएँ हैं। कविताएं गहन अध्ययन, मनन तथा अनुभूतियों की देन है । कितने सरल शब्दों में कितने गंभीर चिंतन से बात कही गई है एक बानगी तो देखिए --- कविता 'सड़क चलती जा रही थी' से-- 'सड़क चलती जा रही थी
बातें करती जा रही थी ।
हवा अभी तक थरथरा रही है, धूमिल होती जा रही है,
जाने कहाँ क्या हुआ , कोई खास हादसा हुआ है ।
आतंकवाद का कोप है, हुआ कहीं विस्फोट है।
कहीं इमारत संसद की जली,या नींव गणतंत्र की हिली?
हवा अभी तक थरथरा रही है, धूमिल होती जा रही है,
जाने कहाँ क्या हुआ , कोई खास हादसा हुआ है ।
आतंकवाद का कोप है, हुआ कहीं विस्फोट है।
कहीं इमारत संसद की जली,या नींव गणतंत्र की हिली?
एक और सशक्त अभिव्यक्ति ---'मौसम बोलता है /सरगम की कम्प-सा पवन डोलता है / मैं तो हूँ मौन / मौसम बोलता है ।'उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में मानवीकरण अलंकार की छटा स्पष्ट दृष्टिगत होती है। 'फूलों की वादी' ', सुप्रभात, मस्त -मस्त घास हूँ मैं, 'मौसम बोलता है' ,धूप ', में प्रकृति का सुन्दर चित्रण है तो एक कविता 'तुम चले आओ' में मन की उदासीनता ने प्रकृति पर उदासी का आवरण डाल दिया है। ये पंक्तियाँ देखिए - 'सूख गए हैं
अश्क, खिल गई मुस्कान
वर्षा के बाद धूप -से तुम चले आओ।
रीत गए मेघ, है निरभ्र आकाश
कि इन्द्र -धनु के रूप से ,तुम चले आओ ।'
वर्षा के बाद धूप -से तुम चले आओ।
रीत गए मेघ, है निरभ्र आकाश
कि इन्द्र -धनु के रूप से ,तुम चले आओ ।'
प्रकृति प्रेम के साथ-साथ कवयित्री का अध्यात्म की ओर भी झुकाव है ।तभी तो वे लिखती हैं- 'सच्चे सतगुरु ! चरण कमलों की प्रीति मुझे बख्शो।
तुम हो दयानिधि, बख्शो सबके गुनाह ।
इसी प्रकार ---
"मैं सदा राम-नाम के दीप जलाऊँ
जग ज्योतिर्मय हो जिससे, स्वयं प्रकाश मैं पाऊँ।"
इसी प्रकार ---
"मैं सदा राम-नाम के दीप जलाऊँ
जग ज्योतिर्मय हो जिससे, स्वयं प्रकाश मैं पाऊँ।"
सर्वे भवन्तु सुखिन: व वसुधैव कुटुम्बकम की भावना रखते हुए कवयित्री की बहुत ही सुन्दर व सार्थक भावाभिव्यक्ति है,देखिए ---
'आओ अब लौट चलें अधिक देर न हो जाए
सहेज लें,रिश्तों-नातों को, फिर से गले लगाएँ
मन की खुशियाँ साथ मिला,फिर परिवार संग मनाएँ।
सहेज लें,रिश्तों-नातों को, फिर से गले लगाएँ
मन की खुशियाँ साथ मिला,फिर परिवार संग मनाएँ।
कवयित्री सामाजिक दायित्वों के प्रति पूरी तरह से सजग है,यही कारण है कि वे अपनी लेखनी से सामाजिक कुरीतियों और विसंगतियो पर कटाक्ष करती हुई दिखाई देती हैं। संग्रह की व्यंग्यात्मक शैली की बानगी भी देखने को मिलती है ।कविता- 'राम अँधेरे में खड़ा है' की पंक्तियों से रुबरु होइए--
'हर दृष्टि है भ्रमित, हर विश्वास संदेह घिरा।
रावण खुलकर खेलते हैं,राम पर नज़रों का पहरा ।
रावण आज करता है-मूल्यांकन राम का,
षड्यंत्रों की कैंची काटती है
उत्तरीय सम्मान का,स्वाभिमान का।
राम के अस्तित्व पर ज्यों /रावण आज भारी पड़ा है ।'
रावण खुलकर खेलते हैं,राम पर नज़रों का पहरा ।
रावण आज करता है-मूल्यांकन राम का,
षड्यंत्रों की कैंची काटती है
उत्तरीय सम्मान का,स्वाभिमान का।
राम के अस्तित्व पर ज्यों /रावण आज भारी पड़ा है ।'
कवयित्री ने रामायण व महाभारत के पात्रों के प्रतीकात्मक रूप को माध्यम बनाकर आज की पीढ़ी को सचेत किया है । कविताओं के माध्यम से भावी पीढ़ी के चरित्र -निर्माण का प्रयास भी किया है ।कविताओं का स्वर आशावादी है।मन में आसमान को छू लेने का सपना सदैव संजोए रखकर उत्साह और साहस के साथ संघर्ष करते चले जाने में गहरी आस्था है। 'ठहरी हुई नदी -सी' की कुछ पंक्तियाँ इसका सशक्त उदाहरण है ---
कर्तव्य से चूको नहीं, कर्म करो चलते रहो
वक्त नहीं रुका कभी ,रुको नहीं चलते रहो।
दुख -सुख पहलू जीवन के, धूप छांव -सी जिंदगी
सतत बहना काम इसका,नहीं ठहरी हुई नदी -सी।'
वक्त नहीं रुका कभी ,रुको नहीं चलते रहो।
दुख -सुख पहलू जीवन के, धूप छांव -सी जिंदगी
सतत बहना काम इसका,नहीं ठहरी हुई नदी -सी।'
कृपाल कौर छाबड़ा जी की कविताएँ किसी भी प्रकार के शिल्पगत बंधनों से मुक्त हैं। सीधी स्पष्ट भाषा में अपने मनोभावों को व्यक्त करती चलती हैं। जो बात जैसी उनके मन-मस्तिष्क में आई,उसे उसी तरह व्यक्ति कर देना ही उनका लक्ष्य प्रतीत होता है । तभी संग्रह की अपनी भूमिका में डाॅ• रघुवीर सिंह बोकन (प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग ) लिखते हैं- 'कवयित्री को जीवन और समाज के जिस कोने से भी प्रेरक प्रसंग मिला, उसे अपनी कविता का विषय बनाया है। उन्मुक्त भाव से स्वेच्छानुसार काव्य विषयों का चयन किया है ,यही नहीं हर विषय पर बखूबी अपनी कलम चलाई है। लेखक हो या कवि समाज में व्याप्त विसंगतियों से आहत होता है लेकिन हताश होकर चुपचाप नहीं बैठता बल्कि अपनी लेखनी से समस्या का समाधान करने का पूरा प्रयास करता है। यहां कवयित्री ने अपनी बात बिना किसी शोरगुल के कही है।ये कविताएँ हमारे भीतर ने केवल झनझनाहटपैदा करती हैं बल्कि निर्मम होते समाज में मानवता की रोशनी भी दिखाती है।यथार्थ से परिचय करवाती ये पंक्तियाँ देखिए ---'कूड़े में
फेंके खाने को ढूंढते हुए
लड़ते हुए, संघर्ष करते हुए
उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए /देखा है मैंने ज़िन्दगी को चलते हुए ।
लड़ते हुए, संघर्ष करते हुए
उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए /देखा है मैंने ज़िन्दगी को चलते हुए ।
'भटके हुए लोग, आर्तनाद एक नारी का, ठूंठ, इक एहसास तेरा, अपनी नज़र से और 'जीवन के राजपथ पर' संग्रह की उल्लेखनीय कविताएँ हैं।कुछ कविताओं में समाज के कटु यथार्थ को व्यक्त किया गया है ।विशेषतया शीर्षक सकारात्मक हैं जिससे पढ़ने की उत्कंठा उत्पन्न होती है । 'ये ऊन के फंदे ' शीर्षक जितना सरल लगता है कविता उतनी ही गहराई लिए हुए है ।जिसका आनन्द पढ़कर लिया जा सकता है । छोटी -सी बानगी देखिए --
कितने नाते-रिश्तेदार बन जाते ये फंदे
मैं दादी हूँ,नानी भी हूँ एहसास दिलाते फंदे
प्यारे-प्यारे रिश्तों को बुनकर बतलाते फंदे
बिना बोले बहुत कुछ कह जाते हैं फंदे
प्यार बढ़ाते रिश्तों में, रिश्तों को बढ़ाते ये ऊन के फंदे ।'
मन को छू लेने वाली कविता 'माँ ! तुम्हें याद करती हूँ ,' भावुक मन की अभिव्यक्ति है -- याद करती हूँ , माँ तुझे खोकर
प्रयास करती हूँ-माँ बनने का ,आज स्वयं माँ होकर ।
कई क्षण ऐसे आते हैं, बहुत -बहुत रूलाते हैं,
जब राह नहीं पाती हूँ,स्मृतियों में खो जाती हूँ।'
मैं दादी हूँ,नानी भी हूँ एहसास दिलाते फंदे
प्यारे-प्यारे रिश्तों को बुनकर बतलाते फंदे
बिना बोले बहुत कुछ कह जाते हैं फंदे
प्यार बढ़ाते रिश्तों में, रिश्तों को बढ़ाते ये ऊन के फंदे ।'
मन को छू लेने वाली कविता 'माँ ! तुम्हें याद करती हूँ ,' भावुक मन की अभिव्यक्ति है -- याद करती हूँ , माँ तुझे खोकर
प्रयास करती हूँ-माँ बनने का ,आज स्वयं माँ होकर ।
कई क्षण ऐसे आते हैं, बहुत -बहुत रूलाते हैं,
जब राह नहीं पाती हूँ,स्मृतियों में खो जाती हूँ।'
प्रेम के माध्यम से वे अंधकार और विषमता के विरुद्ध रचनात्मक लड़ाई लड़ती हैं।'अभिसार ', 'प्यार के पाखी बने हम, इक एहसास तेरा ' इसी कड़ी की पक्षधर हैं।कवयित्री ने अपनी राष्ट्रभाषा ,देशप्रेम, व, राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे पर भी अपनी अभिव्यक्ति दी है वे लिखती हैं---'मेरे भारत देश /प्राण हो तुम मेरे!/ तेरे लिए मर- मिटूँ हो जाऊँ अशेष /इच्छा यही विशेष । महाराजा रणजीत सिंह, आर्तनाद एक नारी का, गलवान के वीर शहीदों की स्मृति, आनन्द मन का भाव बन जाता है-- संग्रह की बड़ी कविताएँ हैं जिनमें पूर्ण समर्पित भाव से संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग किया गया है। कवयित्री के स्वर में कहीं-कहीं आक्रोश भी झलकता है ,कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं--
'कहाँ गया सती गांधारी माँ और सत्यवक्ता विदुर का तप ?
क्यों ले रहे क्रूर, आततायी, अत्याचारी पापियों का पक्ष ।
छल, छद्म -द्यूत-रण में प्रवीण कायर पुरुष जीत गए,
हा ! तत्पर आज पाने को अपना घृणित, कुत्सित लक्ष्य ।'
क्यों ले रहे क्रूर, आततायी, अत्याचारी पापियों का पक्ष ।
छल, छद्म -द्यूत-रण में प्रवीण कायर पुरुष जीत गए,
हा ! तत्पर आज पाने को अपना घृणित, कुत्सित लक्ष्य ।'
संग्रह की सभी कविताएँ पठनीय व गुणवत्ता लिए हुए हैं। उन्होंने नव वर्ष की कितनी सुंदर कल्पना की है वे लिखती हैं ---
'चला है बटोही, रश्मि -मंजूषा ले ,बाँटने घर-घर।
महलों की मुंडेरों पर/ या हों झोंपड़ी के ऊपर,
किरण -किरण आएगा धर,/दानी कर्ण जैसा दिनकर ।
आओ!भूलकर सब भेदभाव/मनाएं नव-वर्ष!
प्रस्तुत काव्य संग्रह में भारतीय लोकतंत्र जीवन व आध्यात्मिकता के स्वरों से परिपूर्ण कविताएं भी हैं।समकालीन विचारधारा की संवेदना की सार्थक अभिव्यक्ति कविताओं का कथ्य है।कविता का पहला धर्म जीवन की विसंगतियो को उद्घाटित करना होता है और इसलिए उनकी कविताओं को पढ़ने से प्रमाणित हो जाता है कि कवयित्री समाज के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखती हैं।इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि कवयित्री की लेखनी ने सभी बिंदुओं को छुआ है ।समस्त अनुभूतियां संदेशवाहक हैं।आशावादी स्वर है ।
'चला है बटोही, रश्मि -मंजूषा ले ,बाँटने घर-घर।
महलों की मुंडेरों पर/ या हों झोंपड़ी के ऊपर,
किरण -किरण आएगा धर,/दानी कर्ण जैसा दिनकर ।
आओ!भूलकर सब भेदभाव/मनाएं नव-वर्ष!
प्रस्तुत काव्य संग्रह में भारतीय लोकतंत्र जीवन व आध्यात्मिकता के स्वरों से परिपूर्ण कविताएं भी हैं।समकालीन विचारधारा की संवेदना की सार्थक अभिव्यक्ति कविताओं का कथ्य है।कविता का पहला धर्म जीवन की विसंगतियो को उद्घाटित करना होता है और इसलिए उनकी कविताओं को पढ़ने से प्रमाणित हो जाता है कि कवयित्री समाज के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखती हैं।इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि कवयित्री की लेखनी ने सभी बिंदुओं को छुआ है ।समस्त अनुभूतियां संदेशवाहक हैं।आशावादी स्वर है ।
छंदबद्ध व मुक्त छंद में लिखी कविताएँ अपनी अलग ही पहचान बनाने में समर्थ हैं। जीवन के हर पक्ष का मंथन कर पाठक वर्ग के समक्ष रखने का प्रयास किया है । सुधी पाठक वर्ग 'यात्रा यूँ चल रही है ' के साथ अपने कदम बढ़ा कर अपना सफर हृदय से पूरा करेगा कृपाल कौर छाबड़ा को इस काव्य कृति के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ।ईश्वर से उनके अच्छे स्वास्थ्य व दीर्घायु होने की कामना करते हैं। उनकी लेखनी अनवरत चलती रहे और साहित्य जगत को समृद्ध करती रहें----
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