0 परिणीता सिन्हा 0
तितली का यूँ शिला लेकर सीढियां चढ़ना,
प्रतीत होती कोई परिकल्पना ।
शायद यह सच नही,
हो किसी चित्रकार की अदभुत कल्पना ।
फिर भी इसमें एक सुंदर संदेश है छिपा ।
प्रयास में ही , पर्याय का बीज है छिपा ।
तितली के लिए उड़ कर,
फासले तय करना,
है महज मिनटों का खेल |
लेकिन एक भार को लेकर,
बिन उड़े चढ़ना ,नही है खेल ।
ऐसी ही दुश्वारियां ,
कभी कभी जीवन में आ जाती है ।
जब जानते हुए भी ,
असंभव को संभव करने का करते है प्रयास |
संभव है, यह दृश्य किसी को विचलित कर जाएगा । फिर उस पत्थर को चढ़ाने ,
कोई और आ जाएगा ।
जब असंभव को संभव बनाने का करते है प्रयास,
तो जुड़ जाती है मंजिल की आस ।
और आस जब दरवाजे खटखटाती है ,
तो कोई मदद स्वतः चली आती है।
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