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"सुनयना" उपन्यास अनकही और अनसुलझी भावनाओं को सुलझाने का प्रयास


सुरेखा शर्मा,समीक्षक /लेखिका ० 

पुस्तक -"सुनयना" उपन्यास (संस्कृत व हिन्दी )
लेखक --डाॅ• महेशचन्द्र शर्मा गौतम
प्रकाशन- निर्मल पब्लिकेशन दिल्ली
प्रथम संस्करण --2019 मूल्य -500 ₹ पृष्ठ संख्या -421

' '"श्रीमान् महोदय ,पिछली पेशी पर आपने इसे निर्देश दिया था कि यह मेरे मुवक्किल को अपने पुत्र के साथ मिलने से न रोके, परन्तु यह तो कभी भी उनके दोनों को मिलने की अनुमति नहीं देती।आपके निर्देश के प्रति भी लापरवाह पिता पुत्र के सम्बंध को कुछ भी नहीं समझती ।" अभिनव के वकील ने न्यायाधीश महोदय को निवेदन करते हुए कहा ।

ये पंक्तियाँ हैं साहित्य शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार , साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत डाॅ महेशचन्द्रशर्मा गौतम द्वारा रचित संस्कृत उपन्यास 'सुनयना' से ।जो संस्कृत से हिन्दी में भी अनुदित है।एक नारी जीवन की कथा लेकर चलने वाला यह नायिका प्रधान उपन्यास जिसकी नायिका है 'सुनयना' । जो स्वाभिमानी आत्मविश्वास से भरपूर अपने मनोबल से तेजस्वी व सशक्त विचारों से जूझने वाली है। उपन्यास मनोवैज्ञानिक तथ्य व सत्य को प्रस्तुत करता है।कथानक का प्रारंभ अत्यंत ही रोचक एवं प्रभावशाली वातावरण की सृष्टि करता है। घटनाएं स्वाभाविक रूप से घटकर कथानक को वास्तविकता प्रदान करती हैं।उपन्यास प्रारंभ से ही कौतूहल बनाए रखता है, जिसमें पठनीयता का सिलसिला मानसिक जिज्ञासाओं के साथ चलता रहता है। कहीं -कहीं पर आर्द्र संवेदनाएं भी उजागर हुई हैं।

प्रख्यात चिन्तक व आलोचक नामवर सिंह के अनुसार ''उपन्यास केवल भावाभिव्यक्ति का माध्यम नही रहा है बल्कि गहरे शोध,जानकारियों के संकलन तथा विशाल जीवनानुभवों के आधार पर लिखे जाते हैं ।" यह उपन्यास भी लीक से हटकर एक गंभीर विषय को लेकर शोध के पश्चात् लिखा गया है ।इस उपन्यास के उस कड़वे सच से सामना होता है जिस पर विश्वास करना असंभव है । प्रारंभ में इसमें स्त्री की समस्या दृष्टिगत होती है परंतु यह केवल स्त्री की नहीं अपितु पूरे समाज की समस्या है । इसमें स्त्री के कारण उससे जुड़ा पुरुष जिस पीड़ा से गुजरता है वह अवर्णनीय है ।

मन में उपजे प्रेम के बीज सरलता से नहीं उखाड़े जा सकते । परिस्थतियों के वशीभूत अवचेतन मन से चले तो जाते हैं,किन्तु जड़ से निर्मूल नहीं हो पाते। उपन्यास की नायिका के प्रेम का बीज भी कुछ ऐसा ही एहसास कराता है, जो उसकी अपनी ही भूल के कारण फलीभूत नहीं हो पाता और अंत तक उसे सालता रहता है। उपन्यास की विषयवस्तु दाम्पत्य जीवन पर आधारित है।परिवेश की व्यापकता इस उपन्यास की विशेषता कही जा सकती है । उपन्यासकार ने इस उपन्यास के माध्यम से उस यथार्थ की ओर संकेत किया है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही जाता । मध्यमवर्गीय परिवार की कथा है,जिसमें टूटते बिखरते सम्बंधों और विश्वासों को गहराई से देखने की कोशिश की गई है ।

उपन्यास की शुरुआत होती है एक कोर्ट के दृश्य से ।जहाँ नायिका ने अपने पति से तलाक लेने के लिए केस दर्ज किया हुआ है ।जो न्यायाधीश के कहने पर भी अपने बेटे को उसके पिता से नहीं मिलने देना चाहती ।उसका सोचना है कि कहीं उसका बेटा उससे दूर न हो जाए।यह नारी मन की व्यथा है ,सोच है ,जो स्वाभाविक भी है। बेटे पर अपना ही अधिकार चाहती है। आज यह समस्या आम बन चुकी है। आज जहाँ देखो नारी विमर्श की बात देखने को मिलती है ।नारी विमर्श पर बहुत कुछ लिखा व कहा जा रहा है । समाज की यही धारणा है कि नारी दया की पात्र है।नारी पर अत्याचार, प्रताड़ना, दहेज के लिए मार-पीट करना , जला कर मार देना,शराबी पति द्वारा झगड़ा करना आदि घर टूटने या तलाक के कारण बनते हैं । परन्तु यह कृति इसका अपवाद है। यहां नायिका के तलाक लेने का कोई एक भी कारण समझ में नहीं आता। 

उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगा कि केवल नारी ही शोषण की शिकार नहीं होती है,परिवार द्वारा प्रताड़ित नहीं होती है बल्कि पुरुष भी इसका शिकार होते हैं। जैसा कि इस कृति के नायक अभिनव के साथ हो रहा है ।प्रस्तुत कृति में रिश्तों पर खुलकर खुलासा हुआ है ।सामाजिक, पारिवारिक संदर्भों में बदलते रिश्तों को बहुत बारीकी से परिभाषित करती कृति में लेखकीय क्षमता देखी जा सकती है

उपन्यास की नायिका अत्यधिक खूबसूरत व प्रतिभासंपन्न है। जिसका आचरण हमेशा भारतीय संस्कारों के अनुरूप ही रहता है।यहां तक कि भारतीय परिधान ,अपने व्यवहार व प्रभावशाली व्यक्तित्व से सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।कोई भी नायिका के दोहरे चरित्र से परिचित नहीं है।यहां तक कि सुनयना के माता-पिता भी अनजान हैं। यह उपन्यास अलग तरह के नारीवाद को लेकर सामने आता है ।

एक ही बैंक में एक साथ ही और एक ही पद पर नियुक्त हुए नायक अभिनव और नयिका सुनयना के बीच सौहार्द उत्पन्न होना स्वाभाविक था। एक दूसरे की पसंद से दोनों के माता-पिता की इच्छानुसार दोनों विवाह के बंधन में बंध गए । सुनयना और अभिनव के वैवाहिक जीवन की गाड़ी अपनी पटरी पर चलने लगी ।नायिका को ससुराल में इतना प्यार व सम्मान मिला जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी ।अभिनव के प्रणय और समर्पणभाव ने तो उसके दिल को छू लिया । इसके बावजूद भी मन और मस्तिष्क में एक ऐसे शख्स मनोहर कालिज के साथी ने अपनी उपस्थिति बनाए रखी जो उसे छोड़कर अमरीका जा चुका था । यह जानते हुए भी कि जीवन में कभी भी उससे मिलना नहीं होगा फिर भी वह स्वयं को मनोहर की गिरफ्त में पाती है । अपने पति के साथ आनन्दक्रीडा में मग्न होते हुए भी अपने आसपास मनोहर को ही उपस्थित पाती है ।

अभिनव की उपस्थिति का आभास कभी नहीं हुआ । इस सत्य को जानते हुए भी कि मनोहर अपने मनोरंजन के लिए उसे दो वर्ष तक भोग्या वस्तु की तरह भोग कर अमेरिका जा बसा था ।अभिनव जैसे प्रणयशील पति को पाकर भी क्यों उसका मन व्यभिचारी और अविश्वसनीय मनोहर को याद करता है। मनोहर ने नायिका के दिलोदिमाग पर अपना अधिकार जमा लिया था।नायिका के इस गुण को भी नकारा नहीं जा सकता कि अपने व्यवहार से मनोहर के विषय में अंत तक किसी को भी पता नहीं चलने दिया । उपन्यास का अप्रत्याशित अंत पाठकों को चौंका जाता है।
कहानी में हैरान कर देने वाला मोड़ तो तब आता है जब सुनयना एक स्वस्थ व सुन्दर बेटे की माँ बन जाती है। जिसका नाम 'माधव' रखा गया।माधव घर के प्रत्येक व्यक्ति के ध्यान का केंद्र बन जाता है।

अभिनव घर आते ही माधव को गोद में लेकर अपना प्यार उस पर लूटाता उसके बाद ही अन्य काम करता।लेकिन अभिनव का माधव को प्यार करना सुनयना को अंदर तक बेचैन कर देता है । उसका दिग्भ्रान्त मन उसे अपमानित जैसा अनुभव करा देता है।उसका मानना था कि पिता के रूप में माधव पर स्नेह का अधिकार केवल मनोहर का है।
किस तरह से माधव को अभिनव से दूर करे इसी मानसिक द्वंद्व में उलझी हुई पति अभिनव का घर छोड़ने के बहाने तलाश करती थी। आखिर में पतिगृह त्याग कर माँ के घर आकर रहती है। अभिनव की कोशिश होती थी कि उसके व उसके परिवार की ओर से सुनयना को कोई परेशानी न हो ।लेकिन उसे कोई कारण दिखाई नहीं देता सुनयना की नाराजगी का ।

अभिनव ने कहा, " सुनयना, मेरे से ऐसी क्या गलती हो गई जो रूठ कर तुम यहाँ आ गई ?" "क्या मैं अपनी माँ के घर नहीं रह सकती? " वह जानती है कि नाराजगी का कोई कारण है ही नहीं तो क्या बताए? ये कह नहीं सकती कि वह मनोहर को प्यार करती है और तुम मनोहर नहीं हो। उसके विचार में तलाक लेना ही इस समस्या का समाधान है,तभी अभिनव से अलग हो सकती है। सुनयना की माँ बहुत दुखी हुई।रुंधे कंठ से कारण पूछा तो, सुनयना का जवाब था ," माँ, घुट-घुट कर मरने से सम्बद्ध विच्छेद के बाद चैन से युक्त जीवन को मैं अच्छा मानती हूँ ।"
लेखक ने नायिका के माध्यम से आज के सामाजिक परिवेश में प्रेम और द्वंद्व का बखूबी चित्रण किया है । मन की घुटन, मुक्ति की इच्छा को रेखांकित किया है ।जीवन मूल्यों की रक्षा और अपसंस्कृति के संकट से मनुष्य और समाज को बचाने की कोशिश की है ।

उपन्यास की कथा यात्रा के मध्य से ही अलगाव बोध व्याप्त हो जाता है ।दाम्पत्य जीवन की कथा में लेखक ने मानवीय मन का विश्लेषण किया है । उपन्यास की कहानी लीक से हटकर चौंका देने वाली अत्यंत रोचक व आकर्षक है । अंत तक आते -आते उपन्यास नयी जिज्ञासा जगाता है।उपन्यास में छलकता जीवन एक अलग तरह की जिज्ञासा के पृष्ठ -दर-पृष्ठ हमारे सम्मुख खोलता है। कृति पक्ष -विपक्ष की दीर्घ भूमिका को प्रस्तुत करते हुए उपन्यास की भावुकता सहज से असहज होती हुई जीवन की भरपूर व्याख्या करती है।नायिका के डायवोर्स लेने से उत्पन्न भ्रांतियों को उपन्यासकार ने उस समय अत्यंत ज्वलंत बना दिया जब नायिका के वकील ने नायक से पूछा -" आपके व्यवहार में ऐसा क्या असामान्य है जो उसके मन को आपसे मिलने से रोकता है ?" अभिनव ने कहा, "यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।उसके व्यवहार से मैं कभी नहीं समझ सका कि उसका मन मेरे से नहीं मिलता ।"
वकील--"तो क्या सुनयना के व्यवहार से क्या आपको कभी लगा कि वह किसी दूसरे पुरुष से प्यार करती है ।"
अभिनव ----मेरी पत्नी को लेकर आपका यह प्रश्न अप्रासंगिक है ।"

अपने पुत्र की वेदना से व्यथित माता-पिता की भी अब सहमति थी कि संबंधविच्छेद हो ही जाए। पर दूसरी ओर सुनयना के लिए उनके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। बल्कि सुनयना के श्रेष्ठ आचरण और सत्यवादी होने से बहुत प्रभावित थे।उन्हें अभी भी विश्वास था कि परिस्थतियों के बदलने से हो सकता है दोनों के बीच पनपे मतभेद समाप्त हो जाएं। पर सुनयना के वकील के चातुर्य से सुनयना की अपील पर सुनवाई हुई और अभिनव को माधव से मिलने को रोक दिया गया ।

समय अपनी गति से चलता है । समय रूपी साँप- सीढ़ी पर स्थितियाँ बदलते देर नही लगती। कहानी में किरदार भी बदल जाते हैं।जैसे अचानक से सुनयना की मनोहर से भेंट बैंक में हो जाती है।हालांकि उनके प्रणय प्रसंग का परदा गिरे हुए चार वर्ष बीत चुके थे ।लेकिन नायिका अब भी उसके मोहपाश में बंधी हुई थी।घर में अपनी माँ की उपेक्षा की शिकार हो रही थी। होटल में चाय पीते हुए मनोहर से मिलकर सुनयना ने उसकी अमेरिका में बिताए समय की पूरी दास्तान सुनी।विस्तृत वर्णन पाठक उपन्यास में पढ़कर आनन्द ले सकेंगे । एक उदाहरण देखिए -- "सुनयना, बीता हुआ सब कुछ भुलकर हम दोनों को आने वाले समय के विषय में सोचना चाहिए ।अब तुम अपने पति से तलाक ले लो,उसके बाद मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ ।" मनोहर ने प्रस्ताव रखा। उसके प्रस्ताव को सुनकर सुनयना स्वयं को अपनी नजरों में गिरा हुआ पाती है। "

क्या यह वही मनोहर है जिसकी यादों में लीन आज तक अपने गृहस्थ को नष्ट करती रही? इस धोखेबाज की कल्पनाओं में डूबी हुई अपने पति से सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकी ।" मन -ही- मन एक निश्चय करके वह होटेल से बाहर आ गई । घर पहुंचते ही माधव को गोद में लिया और उसे बहुत प्यार करते हुए बहते हुए आँसुओं में अपने मन में भरा नफरत का गुबार निकाल दिया ।माधव को प्यार करते हुए पूछा,"माधव बेटे क्या तुम्हें पापा याद आते हैं?" माधव हां भरते हुए गर्दन हिला कर रोने लगा । "मत रो प्यारे बेटे ।आज मैं तुम्हे पापा के पास ले जाऊँगी ।" कहकर गले लगा लिया । माँ के गले लगकर क्षमा माँगते हुए सुनयना बोली, " यदि आपके निर्देश का पालन करते हुए पहले ही ससुराल चली जाती तो ज्यादा अच्छा होता माँ!" "कोई बात नहीं "देर आए दुरस्त आए" परिवार के लोग अब भी तुम्हारा स्वागत करेंगे ।" माँ ने खुशी- खुशी विदा किया ।ससुराल में पुष्पों से सुनयना का स्वागत नयी दुल्हन की तरह किया गया ।

उपन्यास का अंत सुखद एहसास कराता है। सुनयना के माफी मांगने पर उसके श्वसुर ने कहा, "तुमने संबन्धविच्छेद के लिए न्यायालय में मुकदमा क्यों किया हम नहीं जानते,परन्तु यथार्थ में तुमने ससुराल के किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कुछ भी झूठा आरोप नहीं लगाया।अब तुम अपने घर आ गई हो इससे अच्छा क्या हो सकता है।"
उपन्यासकार ने नव दम्पति की मधुर यात्रा के माध्यम से कोलकाता शहर की भारतीय संस्कृति व इतिहास की धरोहर के रूप में संग्रहालय जो पूरे विश्व के प्राचीनतम संग्रहालयों में से हैं, महत्वपूर्ण जानकारी के साथ परिचय करवाया है।रानी विक्टोरिया के राजगद्दी पर बैठने की कहानी से लेकर उनके विवाह व जीवन के अनेक महत्वपूर्ण अवसरों के चित्र गैलरी की जानकारी दी । जो कृति को विशेष बनाती है।

लेखक का मन स्वयं विषयवस्तु सेे एकाकार होकर चले तभी पाठक एकाकार हो सकता है ।यही कृति का सच है ।अभी उपन्यास में बहुत कुछ है जिसका आनन्द तो पाठक पढ़कर ही उठा सकते हैं ।उपन्यास लिखना एक श्रमसाध्य कार्य है।संपूर्ण उपन्यास की भाषा सहज संप्रेषणीय है । उपन्यास में परिष्कृत भाषा का प्रयोग किया है ।संप्रेषणीयता का विशेष ध्यान रखा गया है । कथ्य एवं शिल्प दोनों दृष्टियों से यह एक विशिष्ट उपलब्धि है । जिसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

निस्संदेह उपन्यास का अंतिम दृश्य पारिवारिक स्नेह व रिश्तों की सुहानी उष्मा की आभा में प्रकाशमान है । उपन्यास रोचक है। 21वीं सदी की दहलीज पर खड़े युवक -युवतियों की मानसिकता को गहराई से छूने में समर्थ है । इस मूल्यवान कृति के लिए लेखक डाॅ महेशचन्द्रशर्मा गौतम जी को हार्दिक बधाई देती हूँ।इस उपन्यास को बहुत पाठक मिलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है ।
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