0 परिणीता सिन्हा 0
आज कैसी दौड़ में भाग रही है जिंदगी ।
आज किसी की न हो रही वंदिगी ।
एक पाँव छूट गया,
साथ कितनों का रूठ गया ।
अपनों का शव उठाए,
इंसान भुगत रहा बेचारगी ।
शून्य से शून्य तक का ये सफर,
आज रूह भी हो रही बेसब्र ।
कब थमेगा ये सिलसिला,
कब रुकेगा ये जलजला ?
अब तो कितने अपने छूट गये,
लगता है भगवान भी अब रूठ गये ।
कहाँ जाए, किधर जाए, कैसे अपनों के बचाए ?
हवा में विष घुला है,
इंसान भी अब कहाँ मिला है ?
कहीं है जीवनरक्षक दवाइयों की कालाबाजारी,
तो कहीं है बेड की मारामारी ।
प्राणवायु भी अब महँगी बिक रही,
चारों तरफ है अफरातफरी ।
ऐसे में हे ! विष्णु अब लो पुनः अवतार,
अब हमारी धरती हो रही जार - जार ।
युग बीते, बीत गया कितना प्रहर
पर कभी न आई अब जैसी सहर |
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