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खिचड़ी और तिलों का त्योहार --मकर संक्रांति


सुरेखा शर्मा ० 

मकर संक्रांति का पर्व 14 जनवरी को अर्थात् ठीक लोहड़ी के एक दिन बाद मनाया जाता है । यह वैदिक कालीन पर्वों में से एक महत्वपूर्ण पर्व है। इस दिन भगवान सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और देवताओं का ब्रह्म मुहूर्त प्रारंभ हो जाता है । इस काल को विद्वानों ने साधनाओं एवं अन्य विद्याओं की प्राप्ति के लिए सिद्धिधात्री माना है।यह काल सूर्योपासना का पावन पर्व है।इस समय जीवन तो जीवन ,मृत्यु तक के लिए भी उत्तरायण काल की विशेषता बताई गयी है । 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ----

'अग्निर्ज्योतिर्हः शुक्लम्षण्मासा उत्तरायणम्
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:।

अर्थात् जो ब्रह्मवेता योगी लोग उत्तरायण सूर्य के 6 मास, दिन के प्रकाश वर्ष शुक्लपक्ष आदि में प्राण छोड़ते हैं वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।यहां महाभारत का एक प्रसंग उद्धृत करना ठीक होगा।जब भीष्म पितामह युद्ध में क्षत-विक्षत होकर गिर पड़े और उनका अंतिमकाल समीप आ गया तो उन्होंने अपने सामने खड़े कौरव -पांडवों से उस दिन की तिथि व नक्षत्र के विषय में पूछा।यह जानकर कि अभी दक्षिणायण चल रहा है तो उन्होंने अपनी मृत्यु का समय उत्तरायण आने तक स्थगित कर दिया । वे वहीं शरशैया पर लेटे-लेटे उत्तरायण की प्रतीक्षा करने लगे।मकर समाप्त हो जाने के पश्चात माघ शुक्ला अष्टमी को स्वेच्छा से प्राणों का परित्याग किया ।उस समय में भी लोग मकर संक्रांति की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा करते थे।

मकर संक्रांति वास्तव में ऋतुपर्व है। यह भारत के सभी प्रांतों में विविध नामों और रूपों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है ।सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश शीत की समाप्ति और वसंत के शुभागमन का भी संदेश देता है । दिन बड़े होने लगते हैं, सूर्य का प्रकाश निरन्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होने लगता है। जिससे समस्त प्राणी जगत प्रफुल्लित हो उठता है। इस अवसर पर देश के सभी पवित्र तीर्थस्थलों पर, संगम स्थलों एवं पावन नदियों के तट पर स्नान-दानादि कर पुण्य प्राप्त करने के लिए श्रद्धालु जन एकत्र होते हैं।गंगासागर के तट पर विशेष जनसमूह एकत्र होता है । स्नान के पश्चात् अपनी सामर्थ्यानुसार चावल,खिचड़ी, गुड़,तिल ,फल- मेवा आदि के साथ ऊनी कम्बल -वस्त्र अपने घर व बाहर के वृद्धों को, पुरोहितों को,गरीबों को देने चाहिए ।

यह पर्व प्रायः माघ मास में आता है।'माघ' शब्द संस्कृत के 'मघ' शब्द से निकला है , जिसका अर्थ है -धन-धान्य ,सोना-चांदी,वस्त्रादि विविध प्रकार के अन्नादि से परिपूर्ण।इसलिए इन वस्तुओं को उपहार -दानादि देने का मास होने के कारण माघ मास कहलाता है । इसे माघी संक्रांति भी कहते हैं।इस पर्व पर प्रायः तिलकुट,खिचड़ी, चुरमा आदि भोजन करने का प्रचलन है ।इसका एक भाव यह भी है कि मकर मास की समाप्ति के इस मास में खिचड़ी में खूब मात्रा में घी डाल कर खाया जा सकता है ,जो इस समय सुपाच्य होता है।

पंजाब में माघी के नाम से मनाये जाने वाले पर्व से एक दिन पहले लोहड़ी मनाई जाती है । इस अवसर पर प्राचीन काल में जो बड़े- बड़े यज्ञों का आयोजन किया जाता था आज उसकी झलक घर -घर में लकड़ियां जलाकर मकई की खील और तिल गुड़ से बनी रेवड़ियों को पहले अग्नि में डाला जाता है फिर प्रसाद के रूप में मिल बांटकर खाते   वेदमंत्रों का स्थान लोकगीतों ने ले लिया है।सभी एकत्र हो कर उल्लास से पर्व को मनाते हैं।

गुजरात, महाराष्ट्र में भी मकर संक्रांति की धूम देखने को मिलती है । हर वर्ग के ओर अपने-अपने घरों के आगे रंगोली बनाते हैं और उबटन लगाकर स्नान करते हैं।एक-दूसरे को तिल -गुड़ खिलाते हुए कहते हैं----'तिल गुड़ध्या आपि गरुड गरुड बोला'--अर्थात् तिल और गुड़ खाओ मीठा -मीठा बोलो। महाराष्ट्र की महिलाएँ सजधज कर अपनी सहेलियों के यहां हल्दी -कुंकुम के लिए निमंत्रित करने के लिए जाती हैं जहाँ उनका स्वागत धान और हलवे से होता है और उन्हें कुंकुम लगाया जाता है।इस प्रकार सौभाग्यशाली स्त्रियाँ इस पर्व को मिलन -पर्व के रूप में मनाती हैं।
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि दक्षिण प्रदेशों में मकर संक्रांति को 'पोंगल' पर्व के नाम से मनाया जाता है ।पोंगल दक्षिण का महापर्व है । वहां का जनसमूह दीपावली -दशहरा की भांति बड़े समारोह के रूप में मनाता
है। इस अवसर पर मन्दिरों में प्रतिमाओं का विशेष श्रृंगार होता है ।सामुहिक गीत-संगीत के कार्यक्रम होते हैं गाजे बाजों के साथ शोभा यात्रा निकाली जाती है ।विशेष प्रकार से बनाई गई खिचड़ी से भगवान को भोग लगाया जाता है तत्पश्चात प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है ।

हिमालय प्रदेश में भी इस दिन भगवान सूर्य को अर्घ्य देकर खिचड़ी को पकवान के रूप में मिल बांटकर खाते हैं।देशभर के सभी प्रांतों में मकर संक्रांति का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है ।यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है ।मकर संक्रांति को आश्रमों,गुरुकुल, ऋषिकुलों में वेदाध्ययनों के तीसरे सत्र का शुभारंभ होता था ।इस समय आमजन भी अपने बच्चों को संस्कारित करने के लिए आश्रमों में प्रवेश दिलाते थे। 'वसन्ते ब्राह्मणमुपनयेत्' के अनुसार कुछ दिन उपरान्त ही आचार्य द्वारा बच्चों का उपनयन संस्कार कराके वेदाध्ययन शुभारंभ किया जाता था। दक्षिण में तो आज भी 'पोंगल पर्व ' को बालकों को अक्षरारम्भ,वेदारम्भ, वेदाध्ययन करवाने की प्रथा है ।

कृषि जगत में भी इस दिन का विशेष महत्व है ।इस समय गेंहू की फसल लहलहा उठती है , फूली हुई सरसों के पीत वस्त्र पहनकर प्रकृति नए रूप में प्राणी जगत को अपनी ओर आकर्षित व मन को प्रफुल्लित करती है । चने की फलियाँ दानों के भार से झूम -झूम लहलहाती हैं। ऐसे में कृषि प्रधान भारत देश का सम्पूर्ण समुदाय मकर संक्रांति पर्व के रूप में अपने आनन्द और उल्लास की मस्ती में ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसकी फसल फल -फूल कर सकुशल घर में आ जाए और मेरी भारत भूमि सदैव हरी-भरी, फलती-फूलती रहे ।
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