क्यों सोच रहा मन बावरे!
कछु नहीं हाथ हमारे-तुम्हारे
वह सृष्टिकर्ता, वह ही पालनहार
उसकी करुणा-कृपा पर आश्रित
जग का समस्त कार्य-व्यवहार
तूने बनाए माटी के पुतले
जो ख़ुद को ख़ुदा से कम नहीं आंकते
राग-द्वेष भाव में जीते
स्व-पर से ऊपर नहीं उठ पाते
कथनी-करनी में नहीं साम्य
वैमनस्य-वैषम्य भाव को
जीवन में सर्वोपरि स्वीकार अपनाते
वे स्वार्थांध सदैव अपनों का हित साधते
पल भर में पीठ में छुरा घोंपते
अपने बन अपनों को छलते
मत आंसू बहा पगले!
जाने वाले लौट कर कभी नहीं आते
प्रभु का सिमरन कर, ध्यान लगा
मृग की भांति मत भटक संसार में
वह तो मानव के रोम-रोम में बस रहा
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