मैं और मेरी रचना प्रक्रिया….एक स्वर्णिम अवसर है, अतीत की स्मृतियों में झांकने का, अथाह सागर से मोती तलाशने का और हक़ीक़त से रूबरू होने का। वास्तव में इस प्रक्रिया पर अवलोकन करने हेतु मानव को लौटना पड़ता है... अपने गुज़रे समय में, जो रेत के कणों की भांति हथेली से छूट चुका होता है और यह एक प्रयास है, उन लम्हों को बरबस कैद करने का, उन्हें संजोने का, जब लेखक ने भावावेग व असहाय अवस्था में विवशता से अपनी लेखनी को उठाया होगा।
वास्तव में किसी रचना का अवतरण प्रसव पीड़ा से गुज़रने के समान होता है। बरसों की उमड़न-घुमड़न टीस, पीड़ा, दु:ख, संत्रास व वेदना जब मानव मन को उद्वेलित करती है, तो असाधारण मन:स्थिति में कोई रचना जन्म लेती है, जिसे देख मानव अनुभव करता है कि उसकी बरसों की साध रंग लायी है और उसे साकार रूप में देख वह फूला नहीं समाता।
बचपन से पढ़ने-लिखने का शौक़ था। जितना भी जेब-खर्च मिलता था, उससे प्रतिदिन किराये पर नयी किताबें ले आती थी और यह सिलसिला निरंतर लंबे समय तक जारी रहा। महाविद्यालय में प्रवेश पाने के पश्चात् पुस्तकालय की पत्र-पत्रिकाओं को नज़रों से गुज़रना लाज़िम था और उन दिनों धर्मयुग, सारिका, हिंदुस्तान, सरिता, मुक्ता, कादंबिनी आदि पत्रिकाएं मनो-मस्तिष्क का आहार थीं और उनके माध्यम से अनेक लेखकों के बारे में जानने का अवसर भी प्राप्त हुआ। मैंने लंबे समय तक उन पत्रिकाओं के विशेषांकों को संभाल कर रखा, जैसे वे मेरे जीवन का अनमोल खज़ाना हों। मन्नु भंडारी, मालती जोशी, धर्मवीर भारती, महादेवी वर्मा, शिवानी, इंदुबाली आदि के साहित्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया; मेरे भावों को शब्द-रूपी पंख प्रदान किए और एक सिलसिला चल निकला... कविता, कहानी व आलेख लिखने का, जो आज भी जुनून की मानिंद अंतरात्मा में रचा-बसा है; जीने का मक़सद है।
विश्वविद्यालय में डॉ• जयनाथ नलिन, डॉ• मनमोहन सहगल, डॉ• शशि भूषण सिंहल, डॉ• हरिश्चंद्र वर्मा आदि गुरुजनों ने साहित्य के प्रति अभिरुचि व विशेष प्रेम देख मेरे लेखन को नवीन दिशा प्रदान की। विश्वविद्यालय में मुझे कहानी व निबंध-लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। मैं सादर नमन करती हूं, श्री उदयभानु हंस व डॉ• चंद्र त्रिखा को, जो नए साहित्यकारों के प्रेरणा-स्रोत हैं और उनका मार्गदर्शन कर वे आत्मसंतोष की अनुभूति करते हैं। वे अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए अत्यंत प्रसन्न होते हैं तथा उन्हें प्रोत्साहित कर संबल प्रदान करते हैं।
बीस वर्ष की आयु में बहुत जद्दोज़हद के पश्चात् महाविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल तो गई; परन्तु इसे पाने के लिये विभिन्न आपदाओं का सामना करना पड़ा। भाई-भतीजावाद,भ्रष्ट-राजनीति, रिश्वतखोरी व सिफारिश के सम्मुख योग्यता को दबे पांव लौटना पड़ता था और दिन-भर भटकने के पश्चात् भारी मन से, घर लौटने पर जब यह प्रश्न पूछा जाता था' कि क्या हुआ? कितने प्रतिभागी थे?' ऊस स्थिति में मन का आक्रोश सहसा फूट निकलता था। सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों व विडंबनाओं ने नारी के बढ़ते कदम देख, उनमें नकेल ही नहीं डाली, बल्कि उनके पंखों को काटने का हर संभव प्रयास किया। समाज में बढ़ते अनाचार, पापाचार, क़दाचार, अराजकता व गिरते मानव-मूल्यों को देख मन आहत हो, चीत्कार कर उठता है और उन्हें तहस-नहस कर डालना चाहता है। सामाजिक मान्यताओं, बंधनों, रूढ़ियों व अंधविश्वासों का गला घोंट डालना चाहता है; जहां बलात्कार की शिकार मासूम को कटघरे में खड़ा कर, प्रश्नों की बौछार की जाती है... एक अदद चश्मदीद ग़वाह की मांग की जाती है; जिसे देख कर, जहां मन में वितृष्णा का भाव उत्पन्न होता है और वहीं मस्तक शर्म से झुक जाता है।
औरत की अस्मत न सतयुग में सुरक्षित थी, न ही त्रेता व द्वापर युग में। कलयुग में तो वह नीलाम होती है, कभी चौराहे पर...तो कभी घर की चारदीवारी में उसकी इज़्ज़त अपनों द्वारा लूट ली जाती है और कभी वह शोभा बनती है महफ़िलों की, जिसे मात्र दिल बहलाने की वस्तु समझ, उपभोग करने के पश्चात् खाली बोतल की मानिंद बीच राह फेंक दिया जाता है। आजकल न तो वह भ्रूण रूप में सुरक्षित है, न ही भाई व पिता के सुरक्षा-दायरे में … इतना ही नहीं, मानव स्वयं को सृष्टि-रचयिता मान भ्रूण रूप में उसकी हत्या कर सृष्टि का संतुलन बिगाड़ रहा है।
रिश्तों की अहमियत समाप्त होती जा रही है। आज कल तो पिता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्री ...यहां तक कि गुरु-शिष्य के संबंधों पर भी प्रश्न- चिन्ह लग गया है। मां, पत्नी, बहन, बेटी आदि के संबंधों को ग्रहण लग गया है और शेष बचा है, केवल एक ही औरत का संबंध...जिसे आजीवन सहना है, कहना नहीं। इतना ही नहीं, कभी उसे एकतरफ़ा प्यार में, तो कभी दहेज के लालच में मार डाला जाता है...कभी तेज़ाब डालकर, तो कभी तंदूर में अग्नि की भेंट चढ़ा दिया जाता है; कभी उसे बिजली की नंगी तारों से जला दिया जाता है; तो कभी ब्लेड से नसें काट कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। आजकल तो नदी किनारे पैर फिसल जाने के किस्से भी आम हो गए हैं। बच्चे भी आजकल दरिंदगी का शिकार हो रहे हैं और मानव उनके गोश्त के टुकड़ों का निवाला बना कर, अपनी क्षुधा को शांत कर रहा है। ज़रा सोचिए, ऐसे विषाक्त वातावरण में मन कैसे शांत रह सकता है?
आधुनिक समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ रही अराजकता, विश्रंखलता, विखण्डन, संवेदनहीनता... अविश्वास, संत्रास व अनास्था का प्रतिफलन है; जिसे देख एकाकी मन विकल-विह्वल व व्यथित ही नहीं, आक्रोश से भर उठता है और सोचने पर विवश हो जाता है कि आखिर क्या होगा इसका अंजाम? आत्मकेंद्रितता से उपजी संवादहीनता का परिणाम है संवेदनशून्यता, जो पति-पत्नी के बीच बढ़ते अजनबीपन के अहसास व दूरियों का परिणाम है, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चे भुगत रहे हैं। संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था के प्रचलन के कारण परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक सिमट कर रह गए हैं। पति-पत्नी की रात-दिन की नोंक-झोंक, एक-दूसरे पर अकारण दोषारोपण और नीचा दिखाने हेतु, बच्चों को हर असामान्य स्थिति से अवगत करा, हथियार के रूप में प्रयोग करना–जहां मानव को हैरत में डालता है; वहीं उन्हें निपट स्वार्थी व एकांगी बना देता है।
सो! बच्चे एकांत की त्रासदी से जूझ रहे हैं और मीडिया से जुड़ाव के दुष्प्रभाव के कारण उनमें आपराधिक प्रवृत्ति पनप रही है। विभिन्न वेबसाइटों को खंगालने के कारण, वे अपनी उम्र से पहले ही परिपक्व हो रहे हैं और मासूम बच्चों को अग़वा कर फ़िरौती मांगना, गला रेत कर हत्या करना और उन्हें चोरी-डकैती, लूटपाट की घटनाओं व दुष्कर्म की प्रवृत्तियों में धकेल जुर्म के ग्रॉफ़ में इज़ाफ़ा कर रहे हैं... जो सामाजिक समरसता के लिए घातक है, शोचनीय है, चिंतनीय है, मननीय है। मानव की असीमित इच्छाएं व अपेक्षाएं ही तनाव की जनक हैं। अधिकारों के प्रति सजगता व कर्त्तव्यों के निर्वहन का अभाव; समाज में बढ़ रही अराजकता, असमानता व असंतुलन का परिणाम है, जिसके कारण जीवन से दैवीय गुण स्नेह, ममता, सौहार्द, सहनशीलता, करुणा, सहानुभूति, सहयोग व त्याग के भाव निरंतर लुप्त हो रहे हैं... शालीनता व मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण हो रहा है। स्वार्थपरता, संशय, संत्रास व अविश्वास की भावना वह दीमक है, जो संबंधों की सुंदर, आकर्षक व मज़बूत इमारत की नींव व चूलों को हिला कर रख देती है और शाश्वत संबंधों को लील जाती है। सड़क किनारे भीख मांगते नंग-धड़ंग बच्चे, रोटी झपटने को एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा, पत्थर कूटती औरत, सिर पर बोझा ढोते, लड़खड़ाते मज़दूर व मज़दूर महिलाओं की ओर लपलपाती नज़रों को देख किसका हृदय सामान्य स्थिति में रह पायेगा? यह संवेदनहीनता हमें न जाने किन अंधी गलियों में ले जाएगी, कल्पनातीत है?
इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशते हैं– मेरे चार कहानी- संग्रह व नौ लघुकथा/ भावकथा संग्रह, जिनकी कहानियों के पात्र, बरसों तक मेरे अंग-संग रहे और उन्होंने मुझे उनके क़िरदार के बारे में लिखने को विवश कर दिया। मुझे यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि मेरी कहानियों के पात्र काल्पनिक नहीं, इस जगत् के बाशिंदे हैं। सो! आपको यह घटनाएं आपबीती प्रतीत होंगी। मेरी महिला क़िरदार ज़ुल्म सहती हैं, विषम परिस्थितियों व आगामी आपदाओं का डटकर मुकाबला करती हैं, परंतु कभी भी हिम्मत नहीं हारतीं। वे समझौता करती हैं और घुटने नहीं टेकतीं। वे सशक्त, सक्षम व समर्थ हैं। उनमें दुर्गा व काली की शक्तियां संचित हैं। उन्होंने स्वयं को अर्थात् अपनी शक्तियों को पहचान लिया है और अब वे आधी ज़मीन ही नहीं, आधे आसमान को भी पा लेना चाहती हैं; जिस पर लंबे समय से पुरुष वर्ग काबिज़ है। वे जान चुकी हैं कि 'ज़ुल्म करने वाले से अधिक दोषी-अपराधी ज़ुल्म सहने वाला होता है।' इसलिए अब वे विरोध करती हैं, अपने अधिकारों की मांग करती हैं तथा वे इस तथ्य से अवगत व सजग हैं कि 'यदि अधिकार मांगने से नहीं मिलता तो उसे छीनने में संकोच नहीं करना चाहिए।' यह सकारात्मक पक्ष है मानव की सोच का, दृष्टिकोण का– जो उसे आकाश की बुलंदियों तक पहुंचाने में समर्थ है।
चलिए! दृष्टिपात करते हैं रचना-प्रक्रिया पर--- मैंने कभी सोचकर नहीं लिखा, सदैव बंद आंखों अर्थात् बिना ऐनक के लिखा ताकि मैं पूर्व-लिखित पंक्तियों से अवगत न हो सकूं। सो! मुझे पुन:लेखन की आवश्यकता भी कभी नहीं पड़ी। यदि मैंने कभी अपनी रचना से एक शब्द/वाक्य को परिवर्तित करना चाहा, तो घंटों के अनथक प्रयास के पश्चात् भी मैं असफल ही रही तथा मैंने स्वयं को उसी मुहाने पर खड़ा हुआ पाया। मेरा मानना है कि मानव स्वयं नहीं लिखता, कोई अदृश्य दैवीय शक्ति उसे विवश करती है– लिखने के लिए; मन में उमड़ते-घुमड़ते प्रबल भावों को शब्दबद्ध करने के लिए, जो लंबे समय से मनोमस्तिष्क को झिंझोड़-झकझोर रहे होते हैं। शायद! देवी सरस्वती उन शब्दों को साकार रूप प्रदान करती है, जो साहित्य की विभिन्न विधाओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं।
मैंने सदैव देर रात लेखन कार्य प्रारंभ किया, क्योंकि उस समय ख़ामोशियां मुखर होती हैं... चारों ओर सन्नाटा पसरा होता है और असीम शांति व्याप्त होती है। अनेक बार भोर की रश्मियों के दस्तक देने के पश्चात् ही मैंने अपनी लेखनी को विराम दिया। कई बार ऐसा दौर भी आया, जब मैं महीनों तक एक शब्द भी नहीं लिख पाई। इस मध्य मन बहुत आकुल व परेशान रहता था और ऐसा लगता था कि मस्तिष्क खाली हो गया है, शून्यता की स्थिति में पदार्पण कर चुका है...शब्द ब्रह्म रूठ गया है; संवेदनाएं विलुप्त हो गई हैं और लेखनी कुंद हो गई है। परंतु एक अंतराल के पश्चात् स्वत: झरना फूट निकलता है और पुन: सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है लेखन का...और उन क्षणों में अभूतपूर्व, अद्वितीय व अलौकिक आनंद की विलक्षण अनुभूति होती है।
जहां तक काव्य का संबंध है..कविता, ग़ज़ल, मुक्तक व लघु कविताओं के मेरे तेरह काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कविता और लघुकथा लिखने में मुझे कभी भी दो से पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगा तथा दो घंटे में एक नवीन कहानी अस्तित्व में आ पायी। अध्यात्म, दर्शन, जीव, जगत्, संसार, माया, समय, लमहे, रिश्ते मेरे प्रिय विषय रहे हैं। समाज में व्याप्त अव्यवस्था, विषमता, विखण्डन व विसंगतियों के परिणाम-स्वरूप मज़दूरों पर होते जुल्मों को देखकर मेरा खून खौल उठता है और औरत की अस्मत को तार-तार होते देख हृदय का दावानल फूट निकलता है। अंतर्मन का ज्वार मुझे सुक़ून से जीने नहीं देता और तब जन्म लेती है... कविता या कहानी, जो कि भावों, अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है। उस स्थिति में ऐसा लगता है कि यह सब मेरे साथ घटित हो रहा है। इन मन:स्थितियों से गुज़रने पर ही संवेदनाएं कविता, कहानी या लघुकथा का आकार ग्रहण करती हैं।
यहां मैं यह बताना आवश्यक समझती हूं कि बत्तीस वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात्, मुझे राजकीय महिला महाविद्यालय भिवानी में प्राचार्य के पद पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जहां मुझे छात्राओं व उनके परिवारजनों के मनोभावों को समझने व उनके जीवन में क़रीब से झांकने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रतिदिन घर से निकलते ही, किस प्रकार उन्हें मनचलों की बेहूदा-लज्जा-जनक फब्तियों का सामना करना पड़ता है और घर लौटने पर परिजनों के बेसुरे-अलाप व असामान्य प्रश्नों की बौछार व पढ़ाई बंद करा देने की चेतावनी, उनके अंतर्मन को आहत कर देती है...उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाती है। बेटियों को अपनी संपत्ति समझ गाय की भांति किसी के खूंटे से बांध देने की भयावह कल्पना, किस के हृदय को आंदोलित कर आक्रोश से नहीं भर देगी? महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर रहते छ: वर्ष का समय कैसे पंख लगा के उड़ गया, पता ही नहीं चला।
मेरी सात कृतियों का प्रकाशन 2007 से 2009 के बीच हुआ तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात् मुझे हरियाणा साहित्य अकादमी में प्रथम महिला निदेशक के रूप में कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जो अविस्मरणीय है। अकादमी में मुझे प्रदेश के सम्मानित लेखकों से रू-ब-रू होने का, उन्हें क़रीब से समझने व बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त. हुआ। मैंने हिन्दी भाषा व साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए जी-जान से कार्य किया। इस बीच मैंने अनगिनत राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों व काव्य-गोष्ठियों के आयोजन करवाए तथा रेडियो व दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों में शिरक़त की।
हरिगंधा के दो वर्ष तक कुशल संपादन और साहित्यिक आयोजनों में प्रतिभागिता ने मेरे लेखन को नयी उड़ान दी। 2011 से 2014 तक मैंने संस्थापक निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी के पद पर अपनी सेवाएं प्रदान की। विश्वविद्यालय-स्तरीय पुस्तकों को स्थापित लेखकों द्वारा तैयार करवा कर, उनका प्रकाशन कराना– मेरे लिए एक अद्वितीय अनुभव था। अकादमी द्वारा दो उत्कृष्ट पत्रिकाओं का निरंतर प्रकाशन किया गया। इस तीन वर्ष के कार्य-काल में हृदय में नवीन उद्भावनाओं ने जन्म लिया, क्योंकि इंसान हर पल कुछ न कुछ नया सीखता है। सकारात्मक सोच पर मेरी चार पुस्तकें चिन्ता नहीं चिन्तन, परिदृश्य चिन्तन के, चिन्तन के आयाम, चिंतन की स्वर्णिम रश्मियां व चिन्तन और चिन्तन प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन्हें बहुत सराहा गया है और नीरज जी द्वारा हर विद्यार्थी व उनके माता- पिता को पढ़ने का सुझाव दिया गया। इतना ही नहीं, उन्हें पाठ्यक्रम में लगाने का अनुमोदन भी किया गया। चिन्ता चिता समान है और चिन्तन हैरान- परेशान मानव का सही मार्ग-दर्शन करता है। निराश व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में सपनों के महल बनाता और गिराता रहता है।भविष्य के प्रति आशंकित रहने के कारण वह अपने वर्तमान को भी दु:खमय बना लेता है। मानव की सकारात्मक सोच ही उसे फ़र्श से अर्श पर पहुंचा सकती है। अहं भाव द्वन्द्व का मूल है। सुख -दु:ख, अच्छा-बुरा, जय-पराजय, राग-द्वेष, घृणा- स्नेह आदि के भाव अस्थायी हैं, परिवर्तनशील हैं और आते-जाते रहते हैं।
'तुम कर सकते हो' तथा 'अभी नहीं तो कभी नहीं ' की सकारात्मक सोच वह संजीवनी हैं, जिसे कवच रूप में धारण कर, मानव सुनामी की लहरों व भीमकाय पर्वतों से टकरा सकता है तथा दुश्वारियों का सहर्ष सामना कर सकता है। सो!' एकला चलो रे' को जीवन का मूल-मंत्र स्वीकार मानव ज्ञान, इच्छा व कर्म में समन्वय स्थापित कर, आत्मविश्वास, साहस, उत्साह व धैर्य से निरंतर संघर्षशील रह कर, समाज को सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् अर्थात् समरसता के मार्ग तक ले जाता है, जहां अनिवर्चनीय आनंद ही आनंद होता है।
'आधुनिक कविता में प्रकृति' मेरी समालोचना की कृति है, जिसमें प्रकृति के सुंदर व मनोरम रूप को दर्शाया गया है– वह मानव की धात्री व पोषक है। सुख में ओस की बूंदें उसे मोतियों जैसी प्रतीत होती हैं और दु:ख में आंसुओं-सम दिखाई पड़ती हैं। नदी हमें निरंतर चलने व निष्काम कर्म करने का संदेश देती है; तो मलय वायु रंग-बिरंगे पुष्पों को आलोड़ित -आंदोलित कर दशों दिशाओं को महकाती है। आधुनिक काल में प्रकृति कभी संगिनी, तो कभी हमसफ़र, तो कभी पथ-प्रदर्शिका के रूप में हमारे अंग-संग रहती है।
सो! मैंने आजीवन हर पल सीखने का प्रयास किया और आज तक यह जुनून क़ायम है...आत्मावलोकन कर स्वयं को उस तराज़ू में रख कर, उस परिस्थिति का आकलन करना; दूसरों से विनम्र व्यवहार करना; राग-द्वेष का भाव न रखना; निरंतर संघर्षशील रहना, आत्मविश्वास व आत्मनियंत्रण रख जीवन पथ पर अग्रसर होना और मौन को अपना साथी स्वीकार, जो भी मिला है...उसे आत्मसात् कर, कागज़ पर उक़ेरना...मेरे जीवन का मक़सद है। प्रभु में मेरी अटूट आस्था है, विश्वास है और अब तक मुझे जो भी प्राप्त हुआ, सृष्टि-नियंता का कृपा-प्रसाद है, जो अप्रत्याशित, सहसा व अनायास ही प्राप्त हुआ है।
मैं हरियाणा की प्रथम महिला हूं, जिसे माननीय राष्ट्रपति महोदय ने 2016 में सुब्रह्मण्यम् भारती पुरस्कार तथा 2017 में श्रेष्ठ महिला रचनाकार पुरस्कार से अलंकृत किया गया। वैसे आज तक लगभग एक शतक सम्मान-पुरस्कार पाने का श्रेय, मैं उस करुणा-सागर को देती हूं। उस सृष्टि-नियंता की असीम करुणा-कृपा से मैं विभिन्न विधाओं में चौंतीस कृतियों का सृजन कर पायी। उसकी अनुकंपा सदैव बनी रहे तथा मेरी लेखनी अंतिम सांस तक अनवरत चलती रहे... केवल यही मेरी गुज़ारिश है, इच्छा है, चाहना है।
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