Halloween Costume ideas 2015

बचपन की होली

रीना सिन्हा ० 

होली पास आ रही है, मैं जल्दी जल्दी ढेर सारी तैयारियों में लगी हूँ । पर मन है कि बार बार जाने क्यूँ भाग कर बचपन की गलियों में पहुँच जा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी होली अपने साथ कितने ही यादों के रंग बिखेरे जा रही है। बचपन की होली की बात ही अलग थी। हम सुबह से रंग खेलने की तैयारी में लग जाते थे। माँ कहती रंग खेलने से पहले जल्दी से  चेहरे , हाँथ-पैर और बालों में तेल लगा लो वरना रंग नही छूटेगा ,और हम सब ढेर सारा तेल लगा कर और पुराने कपड़े पहन कर तैयार हो जाते अपनी गत बनवाने के लिए।

मुझे रंग खेलनें का मन तो बहुत होता , लेकिन बाद में रंगों से चेहरे की जो गत बनती उसका सोच कर डर भी लगता। लेकिन एक नियम तो पक्का था कि जो ज्यादा डरेगा और होली खेलने देर से निकलेगा उसकी और ज्यादा पुताई होगी इसलिए चुपचाप निकल आने में ही भलाई होती। रंग खेलनें के बाद बारी आती सबको कीचड़ पानी वाले गढ्ढे में डुबाने की। उसके लिए भईया लोग होली के 2 दिन पहले से गढ्ढा खोद कर तैयार करते , बाकायदा पाइप लगा कर उसे पानी से भरा जाता और फिर रंग खेलने के बाद बारी बारी से सबको उसमे छपाक...

हमलोग की होली के बाद पापा लोग का ग्रुप होली खेलने निकलता। सबके घर जा जा कर आवाज़ लगा कर बाहर बुलाया जाता, फिर सब मिलकर खूब रंग लगाते और अगर किसी ने बचने की कोशिश की तो रंगों भरी बाल्टी सर पे पलट दी जाती। हमलोग ये सब देखकर खूब हँसते। शायद वही एक दिन होता जब बड़ों को भी बच्चा बना हुआ पाते। फिर सब बड़े लोग घर के बाहर बैठ कर खूब गाना बजाना करते।  फिर पुआ और दहिबडों कि फरमाइश होती। कोई ठंढाई तो कोई भाँग ले आता और फिर किसे होश रहता कि  किसनें कितने पुए खाये

सबसे ज्यादा हमें अच्छा लगता माँ और उनकी सहेलियों का होली खेलना। माँ सुबह से जो पुआ बनाना शरू करती तो लगता ये कभी खत्म ही नहीं होगा। जब कॉलोनी की लेडीज टोली निकलती तो हम भाग कर माँ को खबर करते कि माँ अब पुआ बनाना बन्द करो तुम्हारी टोली होली खेलने आ गई हैं। जैसे ही माँ बाहर निकलती पूरी टोली टूट पड़ती रंग लेकर। मिनटों में ऐसी हालत कर दी जाती की पहचानना मुश्किल हो जाता। खूब हँसी मज़ाक , पकड़ धकड़ और दौड़ा दौड़ी चलती...और ये सब देखकर हमें खूब हँसी आती 

और अब आती रंग छुड़ाने की बारी। बेसन , नींबू  साबुन और जितनें उपाय होते सारे आजमा लिए जाते फिर भी कहीं न कहीं रंग रह ही जाता। किसी का कान लाल दिखता तो किसी का गर्दन हरा । थोड़ा सा आराम कर शाम को नए कपड़े पहन कर तैयार होते, दादा दादी और सभी बड़ों के पैर पर अबीर रखकर प्रणाम करते और फिर दोस्तों के घर जाते या वो हमारे घर आतेऔर फिरअबीर वाली होली होती। वही पुआ और दही बडा सबके घर बनता और खाना जरूरी होता था। 

मुझे याद है तब होली में किसी को घर बुलाना नही पड़ता था, कॉलोनी के सब लोग बिना बुलाये ही आते थे और अगर कोई नही आता तो उलाहना भी दिया जाता। तो इस तरह मनती हमारी बचपन की होली। अब तो शहर में बिना बुलाये कोई नही आता। गीले रंग भी अब कम ही खेले जाते हैं उनकी जगह अब सूखे अबीरों ने ले ली है। आज होली के गीले रंगों की जगह भले ही सूखे अबीर आ गए हों लेकिन हमारे मन सूखे नहीं होने चाहिए। इस उम्मीद के साथ कि आप सबके मन प्यार और अपनापन से भींगे रहें आज यहीं विदा लेती हूँ..बहुत सारे काम पड़े हैं, उन्हें निबटा लेती हूं...फिर मिलूँगी किसी और कहानी के साथ।  सबको प्यार ,आभार और होली की ढेरों  बधाइयाँ....

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