० भुवनेंद्र सिंह बिष्ट ०
दौलत वालों, वैभव वालों,
खोलो अपने कान रे,
नयी सुबह में जाग उठा है,
नवयुग का इंसान रे।
अपना भाग्य बनाने को,
वह बन बैठा भगवान रे।
बढ़ता जाता तोड़ गिरा वह,
लोहे की जंजीरों को,
निज पौरुष से मिटा रहा,
वह विधि की क्रूर लकीरों को,
मुठ्ठी बांधे भुजा उठाये,
कर में लिए कुदाल है,
मस्ती में वह बढ़ता जाता,
पग पग में भूचाल है।
मुड़ती उसकी नजर जिधर भी,
उठ जाता तूफान रे।
उसको अपनी ही हिम्मत का,
केवल अब विश्वास है,
नूतन निर्मित करता जाता,
करता भूत विनाश है,
उसको पड़ती विघ्नों की है,
ऊंची भीतें लांघनी,
रूडी चाह रही है उसकी,
तूफानी गति बांधनी,
कैसे रुक सकता है जिसकी,
मंजिल हो गतिमान रे।
नयी सुबह में जाग उठा है,
नवयुग का इंसान रे।
उसको जहर दिया जगने पर,
वह तो शिव का चेला है
जूझ रहा असुरों से रण में,
मानव राम अकेला है,
शोषण कर्ता रावण चाहे,
कितना भी बलात्कारी हो,
लौटा देगा मुक्ति स्वरूपा,
जानकी सीता नारी को,
पत्थर सागर में तैरा दे,
उसमें शक्ति महान रे।
नयी सुबह में जाग उठा है,
नव युग का इंसान रे।
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