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कविता // परिंदे मनुष्य नहीं होते परन्तु


उमेश नाग ⧭ 

 परिंदे-पक्षी नहीं तो परिंडे नहीं 

ज्यूँ जल -अन्न नही तो जग नही। 

परिंदे मनुष्य नहीं होते परन्तु 

 मनुष्य से भी कम कम नहीं होते।

 होतें ज्ञानी व ध्यानी भी होते हैं 

 मूक होते है पर वेदना-संवेदना-

     रखते जीवन में। 

  धरती-आकाश में विचरण करते 

   दोनों से होता सम रिश्ता इनका

   बेंजुबाँ-बेबस परिंदा -

   बदगुमानी छोड़ देता है

   दिलों से बेनामों रिश्ते -

       जोड़ लेता है। 

   इनकी उड़ान है अनंत व्योम 

   धरती-आकाश दोनों से रिश्ते-

       जोड़े रहते हैं। 

    जाति,धर्म, नस्ल, सम्प्रदाय का

     इनमें नही होता भेदभाव। 

     मन्दिर, मस्जिद, चर्च ,गुरूद्वारे 

      भेद बिना कभी मन्दिर -

      कभी मस्जिद पर जा ,

               बैठते हैं। 

      प्रांत देश की सरहदों से

      भी परे होते हैं। 

      समानता के बेमिसाल जीव

             होतें हैं ये। 

       करते जो इनकी सेवा वे

        जन होते स्वयं सम्मानिय-

             पूज्यनिय होते हैं। 

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