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दीपावली // दीपो ज्योति: पर ब्रह्म :


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सुरेखा शर्मा,लेखिका /समीक्षक
 
कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला प्रकाश पर्व अपनी विभिन्न विशेषताओं के कारण एक महापर्व के रूप में प्रसिद्ध है ।अमावस्या के घनघोर अंधकार के बीच नन्हे दीपकों की झिलमिलाती रोशनी स्वतः ही ध्यान खींचती है।हमारे शास्त्रों की उक्ति है --'दीपो ज्योति : परब्रह्म, दीपो ज्योति: जनार्दनः।जब गहन अंधकार से जुझने का संकल्प लेकर अनंत दीप धरा पर जलते हैं और अपनी ज्योति से धरा को तिमिर से मुक्त करते हैं तो वास्तव में ही दीपोत्सव महोत्सव बन जाता है । 

 भारतवर्ष में दीपोत्सव त्रयोदशी से प्रारंभ होकर पांच दिन तक चलता है।इसलिए एक साथ कई पर्वों को समेटे हुए दीपों का महोत्सव कहलाता है 'ज्योति पर्व'। वर्तमान में दीपोत्सव मुख्य रूप से धनवंतरि -त्रयोदशी,नरक चतुर्दशी, दीपावली, बलि प्रतिपदा, भ्रातृ -द्वितीया तक सीमित हो गया है ।दीपोत्सव के पूजन में दुरात्माएं बाधा न डाल सकें इसलिए एकादशी की संध्या से देवताओं के नाम पर प्रथम दीप आलोकित कर उनका आह्वान किया जाता है ।धनतेरस पर दीपदान, यम चतुर्दशी पर नरक की यातना से मुक्ति के लिए दीपदान और अमावस्या की रात लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए दीप जलाकर पूजन किया जाता है ।

इसी कारण से यह पर्व दीपोत्सव बन गया ।दीपक के बिना कैसा पर्व ? लक्ष्मी की पूजा -अर्चना के लिए किसी के पास सुविधा हो या न हो,लेकिन एक नन्हा दीपक अपने घर की दहलीज पर रखने के लिए हर कोई अपनी क्षमता रखता है । यही सोचकर कि लक्ष्मी माँ कहीं भूले भटके आ जाए तो रास्ते में कम से कम रोशनी तो हो ? इसीलिए अमावस्या के गहन अंधकार को चीर कर ज्योति फैलाने वाले नन्हे-नन्हे दीपक विशाल महलों से लेकर गरीब की झोपड़ी तक झिलमिलाते मिल जाएंगे ।

देखा जाए तो दीपावली पर्व है ही ज्योति का। ज्योति की वन्दना हर काल ,हर स्थान, हर धर्म में होती है। वैदिक काल में जो प्रार्थना प्रातःकाल उठते ही ऋषि प्रभु से करते थे - अपने को अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने के लिए , वही आज भी की जाती है----
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मां अमृतं गमय।
भारतीय संस्कृति में ज्योति से अभिप्राय केवल भौतिक प्रकाश ही नहीं ,आध्यात्मिक प्रकाश भी है ।दीपक को सूर्य का भी एक अंश माना गया है -'सूर्यांश संभवो दीपः' और यही दीपक ज्ञान -ज्योति का भी प्रतीक है । अंधकार, अज्ञान का ही रूप है और उसे दूर करने के लिए ज्ञान -ज्योति के दीप की आवश्यकता होती है ।रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है--'राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर बाहिरो जो चाहसि उजियार।'

संत कबीर भी ज्ञान -दीप की ज्योति की चर्चा करते हुए कहते हैं-जब मैं अज्ञानतावश सांसारिक दर्द का सहारा लेकर सर्वसाधारण के पीछे घूम रहा था तो मुझे रास्ते में सदगुरु मिले और उन्होंने मेरे हाथ में ऐसा दीपक दिया , जिसमें कभी खत्म न होने वाला तेल एवं बाती थी।उसी दीप से संसार के दुर्गम व तमस भरे रास्ते से मैं बाहर निकला । दीपक हमें सन्मार्ग दिखाता है।दीपक हमारे प्रेरक होते हैं। जब भी हम दीप जलाते हैं तो देखते हैं उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है। यही उन्नति का प्रतीक है ।ऊपर जाकर दीपक की लौ धुएं की कालिमा का त्याग करती है ।दीये की लौ ऊपर उठती है संसार को प्रकाश देने के लिए ।इसलिए हमारी उन्नति भी तभी सार्थक है जब वह दूसरों के लिए भी उपयोगी हो।

दीप पर्व अर्थात् दीपावली मनाने के पीछे अनेक धर्मों व ग्रंथों में भिन्न-भिन्न कारण भले ही हों फिर भी दीप जलाने की प्रथा सभी में समान है।कारण स्पष्ट है दीपों को प्रज्वलित करके हम पाप तथा अज्ञानता के अंधकार को खत्म करने का प्रयत्न करते हैं।लोक परम्परा में विशेषतः दीपावली की रात लक्ष्मी की पूजा की जाती है ।प्रकाश,समृद्धि, वैभव, सुख सम्पत्ति की देवी के रूप में विष्णु की शक्ति श्री लक्ष्मी का दीपोत्सव से पौराणिक संबंध है । सर्वकामदा लक्ष्मी सत्यवादी,सत्धर्मपारायण ,सद्गुणी लोगों के पास ही बनी रहती हैं,अतः दीपावली की रात में लक्ष्मी की पूजा अर्थात् श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों की पूजा है।
ऋग्वेद के 'श्री सुक्त' में,श्री लक्ष्मी को भी ज्योति रूप बताया गया है ।उन्हें कहीं सूर्य के समान तेजवान और कहीं चंद्रमा के समान शीतल व प्रभावपूर्ण बताया है ।
चंद्रां प्रभासां यशसाज्वलंती,श्रीयं
लोके देव जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मनिभंशरणंप्रपद्ये,अलक्ष्मीम् ,
नश्यतां तां वृणोमि।। अर्थात् जो लक्ष्मी चंद्रमा के समान प्रकाशवान है और यश से जाज्वल्यमान है। इन्द्र तक जिसकी अराधना करते हैं,हमें ऐसी लक्ष्मी की शरण में जाना चाहिये और कामना करनी चाहिये कि वे अलक्ष्मी का नाश करें।

इस प्रकार लक्ष्मी स्वयं ज्योति स्वरूपा हैं।दीपलक्ष्मी के रूप में उनकी प्रतिमा की पूजा करते हैं।सर्वत्र प्रज्वलित दीपों की पंक्ति उनके ज्योति स्वरूप को चहुँओर फैलाती है। दीपावली के शुभावसर पर मुख्यतःदीप प्रज्वलित करने का गूढ प्रतीकात्मक अर्थ है ।प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है और प्रज्वलित दीप श्रेष्ठ साधना, आदर्श युक्त ढृढ़ संकल्प एवं गतिशीलता का सूचक है ।ज्ञान के दीप और उसके आलोक से वह प्रकाश पथ प्रशस्त होता है।जिसको अपनाकर माँ श्री हमारे द्वार पर आ विराजती हैं। इस प्रकार दीपावली का यह महोत्सव, ज्योति पर्व के रूप में मनाया जाता है ।ज्योति का पूजन ही शक्ति का पूजन है।दीपक स्वयं को जलाकर दूसरों को आलोकित करने का संदेश देता है।'दीपावली' अर्थात् दीपों की अवली या पंक्ति प्रेम की परिपूर्णता एवं सब के सहयोग से अंधकार पर प्रकाश के विजय का प्रतीक है। एक दीप से दूसरा फिर तीसरा ,चौथा इस प्रकार दीयों का समूह प्रज्वलित होकर तम के साम्राज्य को हर लेता है।जलता हुआ दीपक हमारे समस्त द्वेष -कुंठाओं एवं पूर्वाग्रहों से दूर करके प्रकाशित पथ पर अग्रसर करता है।

इस प्रकार दीपावली हमें संदेश देती है कि प्रेम बांटने से बढ़ता है और स्नेह रूपी तेल मिलता रहे तो दीपक की शक्ति कभी कम नहीं होती। अतः दीपावली उत्सव इस भावना से मनाएं कि हमारी अन्तर्मन के सभी कलुष नष्ट हो जाएं। दीपोत्सव जन -मन के तिमिर को हरे और सत्य ,स्नेह, सद्भावना की स्निग्ध ज्योत्सना का वरदान बने।
दीपोत्सव इस संकल्प का भी दिन है कि हम अपने आसपास और स्वयं के स्तर पर अधर्म और बुराई का नाश कर अच्छाई और धर्म को अपनाएंगे ।वैसे देखा जाए तो कार्तिक मास धर्म- कर्म, साधना को समर्पित है। दीपावली प्रकृति का सौंदर्य ही नहीं लाती, वहअन्न भी लाती। दीपावली के समय कमल और कुमुद ही नही फूलते धान भी पकते हैं।धान के पौधों अर्थात् नवान्न की गंध क्या होती है ,यह किसान ही जानता है । यह पर्व केवल व्यापारियों का पर्व नहीं है यह कृषक समाज का भी पर्व है।लक्ष्मी केवल प्राकृतिक सौंदर्य की ही देवी नहीं है वह भौतिक समृद्धि की भी साथ ही साधनों का वरदान देने वाली भी है । 'शरद लक्ष्मी ' शब्द कितना सार्थक व व्यंजक है। इस पर्व के आगे -पीछे कई त्योहार साथ-साथ आते हैं। कुछ पारम्परिक पर्व जो गांवों में मनाए जाते हैं ।ऐसा ही एक पर्व है -'हड़ा-हड़वाई ' जिसमें मशाल जलाकर उन्हें नचाया जाता है ----
करवा-करवारी/ ओकरे बरहें दिया देवारी /
देवारी बैठी कोने/तब आग लाग डिठौने--

गांवों में आज भी पवित्रीकरण के लिए गाय के गोबर से लीपा जाता है। देखा जाए तो अमावस्या और कालरात्रि का संयोग अतिमहत्वपूर्ण है। अंधकार की माया बहुत शक्तिशाली है । हम 'ज्योतिर्गमय ' ,'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की बात करते हैं,किंतु क्या हम प्रकाश की ओर जा पाते हैं? सभी सुखी हो पाते हैं ? जिस युग में गांधी आत्मबलिदान करते हैं उसी युग में अणु बम का प्रयोग किया जाता है ।क्या मानव इतिहास अभी तक यह निर्णय कर पाया कि प्रकाश और अंधकार में कौन शक्तिशाली है?  इस दृष्टि से देखें ,तो दीपावली में अमावस्या, कालरात्रि और दीपमाला की अनंत निरन्तर लहराती ज्योति कितनी सत्यता और यथार्थ उद्घाटन करती है । प्रकृति में चंद्र ज्योत्सना और अमावस्या का अंधकार दोनों हैं।हमारी प्रकृति द्वन्द्वमय है,किंतु हमें अंधकार को खत्म कर के प्रकाश फैलाना है । प्रकाश की साधना करते रहना है । अनावश्यक प्रदर्शन से,असामाजिक व्यवहार से जिस बाह्य और मानसिक प्रदूषण को फैलाया जाता है वह सात्विक लक्ष्मी, सरस्वती, महाकाली का पूजन है ।सरस्वती और लक्ष्मी के साथ महाकाली भी वरदायिनी बन जाती है।

दीपावली अपने नाम की सार्थकता लिए दीपदान का महीना है कार्तिक मास।क्योंकि हवन व दीपों की ज्योति से कीट-पतंगे,मच्छर -मक्खी मर जाते हैं,जिससे रोगों की आशंका कम हो जाती है।स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त वातावरण में सुख-समृद्धि स्वतः आकर्षित होती है। यही दीपोत्सव का मर्म है।
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