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नई पीढ़ी के लेखन से ही साहित्य और समाज को मिलेगी नई ऊर्जा

० योगेश भट्ट ० 

नई दिल्ली। नई पीढ़ी के लेखन से ही हिंदी साहित्य और समाज को नई ऊर्जा मिलेगी। उसे पता है कि बाजार के लिए लिखना बाजारू होना नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा अपनी न केवल अपनी अस्मिता को लेकर सजग हैं बल्कि अपनी जिम्मेदारी को भी बखूबी समझ रहे हैं। वे उन खतरों से भी गहरे वाक़िफ़ हैं जिनको खत्म किए बिना समाज लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं हो सकता। ये विचार सामने आए सोमवार शाम 'भविष्य के स्वर' में, जिसमें अपने-अपने काम से नई लकीर खींच चुके सात युवाओं ने अपना अपना अनुभव और नजरिया साझा किया। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित राजकमल प्रकाशन की 75वीं वर्षगांठ पर हिंदी भाषाभाषी समाज के साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवेश को उन्नत बनाने में राजकमल प्रकाशन की भूमिका पर विस्तार से चर्चा हुई।
राजकमल प्रकाशन दिवस के जलसे में आयोजित 'भविष्य के स्वर' में जिन सात चर्चित युवा प्रतिभाओं ने व्याखान दिया उनमें यायावर-लेखक अनुराधा बेनीवाल; अनुवादक, यायावर-लेखक अभिषेक श्रीवास्तव; लोकनाट्य अध्येता, रंग-आलोचक अमितेश कुमार; अध्येता-आलोचक चारु सिंह; लोक-साहित्य अध्येता, कथाकार जोराम यालाम नाबाम; कथाकार, गीतकार-गायक नीलोत्पल मृणाल और चित्रकार, फैशन डिजाइनर मालविका राज शामिल थे।

 राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा‘ 75 वर्ष पहले एक सपना देखा गया था। एक सफर शुरू हुआ था। आज वह सपना हकीकत के रूप में हमारे सामने है।राजकमल को हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ प्रकाशन के रूप में आप सबका विश्वास अर्जित है। अब हम एक नए प्रस्थान की ओर अग्रसर हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि राजकमल भारतीय और विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को व्यवस्थित और नियमित रूप से हिंदी में तो लाए ही, साथ ही यह अपने यहाँ से प्रकाशित हिंदी कृतियों को अनुवाद के जरिये हिंदीतर पाठकों तक पहुंचाने में भी मजबूत पुल बने। पिछले एक दशक में हमने किताबों की बेहतर से बेहतरीन प्रस्तुति पर ध्यान दिया और नए मानक गढ़े। आगामी दशक में हमारा जोर अपने यहाँ से प्रकाशित किताबों की बहुमाध्यमी और बहुआयामी प्रस्तुति पर रहेगा’।

 महेश्वरी ने आगे कहा हमारा मानना है कि नई पीढ़ी की रचनात्मकता ही समाज का भविष्य है। उसको सामने लाकर ही लगातार बदल रहे परिदृश्य में सकारात्मक हस्तक्षेप किया जा सकता है। इसलिए हमने नई पीढ़ी की रचनात्मकता से संवाद करने, उसको सामने लाने की हमेशा कोशिश की है। इसी प्रयास की एक कड़ी है राजकमल स्थापना दिवस के सालाना जलसे में होने वाला 'भविष्य के स्वर'। यह हमारा विचारपर्व है। इसके जरिये हमारा मकसद साहित्य समेत विभिन्न क्षेत्रों में नई लकीर खींच रहे युवाओं के अनुभवों और सपनों को स्वर देना है। हमें उम्मीद है कि भविष्य के स्वर-2022 से निकले विचार निश्चय ही प्रेरक

अध्येता-आलोचक चारु सिंह ने इस मौके पर साहित्य का ‘इतिहास लेखन और नई दिशाएं’ विषय पर बात करते हुए कहा ‘एक दौर में नई कविता, नई कहानी और नई समीक्षा की बात की जाती थी। हमारी पीढ़ी भी एक नयेपन की तलाश में है। नयापन पुराने का नाकार नही है बल्कि उससे सवांद करना है। यह सवांद संस्कृति की सुरुआत से चला आ रहा है और चलता रहेगा। हर पीढ़ी की एक विडंबना रही है कि वह अपने विचारों और आग्रहों के ताजेपन पर विश्वास करती है और तब तक अपने नजरियों और नई दिशाओं को प्रस्तुत करती है,जब तक एक नई पीढ़ी नई दिशाओं के साथ खड़ी नही हो जाती। यह प्रक्रिया अपनी गति से चलती रहती है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है जिसमें हम अपने नजरियों से हस्तक्षेप कर रहे हैं और अपनी अपेक्षांएं भी जाहिर कर रहे हैं।

अरुणाचल प्रदेश के न्यीशी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली लेखक जोराम यालाम नाबाम ने 'धर्म और धर्मसत्ता का द्वंद : आदिवासी जीवन दर्शन का भविष्य' पर बोलते हुए कहा, आदिवासी किसे कहते हैं? इस संबंध में बहुत से लोगों ने बहुत कुछ कहा है। कुछ ने उनको महिमामंडित किया है तो कुछ ने उनको पिछड़ा, बर्बर, इत्यादि बताया। आदिवासियों से बिना पूछे उनका नामकरण किया गया जैसे एनिमिज्म, एनिमिस्ट, प्रिमितिज्म, एबोर्रिजिनल, आदिवासी, जनजाति इत्यादि। बेहतर होगा कि आदिवासी स्वयं अपना नाम जो बताएं शेष समाज उसी को स्वीकार करे।

उन्होंने कहा,भारतीय संविधान ने आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से एक विशिष्ट समुदाय माना गया है, किन्तु उनकी कोई स्वतंत्र धार्मिक पहचान नहीं हैं। आदिवासियों ने अन्य धार्मिक समुदायों में धर्मान्तरित होकर आंशिक रूप से अपने आदिवासियत को खोया है। तथाकथित मुख्यधारा का आकर्षण भ्रांतिपूर्ण हैं। आदिवासियों के लिए धर्म का अर्थ है प्रकृति के साथ अभिन्नता। आदिवासी दर्शन की बात करते समय इसका खयाल रखा जाना चाहिए कि हमारे पास कोई लिखित धर्म ग्रंथ नहीं है। अभी तक हमने कोई धर्म ग्रंथ नहीं लिखा। कोई शास्त्र नहीं लिखा। हमारी जिंदगी सिद्धांतों के निश्चित दायरे में नहीं बंधी। हमारी स्वतन्त्रता ही हमारा मूलभूत सिद्धान्त है।

यायावर –लेखक अनुराधा बेनीवाल ने धारणाओं से बाहर की दुनिया' पर कहा, सब अपनी अपनी सोच और कंडीशनिंग के चश्मों से सबको देखते हैं, नापते-तोलते हैं, जिसमें कुछ सच होने का तुक्का जरूर लग सकता है, ज्यादातर होता नहीं है। धारणाएं सिर्फ गलत या बुरी नहीं होती। हर तरह की होती हैं। दिक्कत तब शुरू होती हैं जब हम अपनी बनाई धारणाएँ औरों पर थोपने लगते हैं, जब खाचों में जबरदस्ती फिट करने की कोशिशें की जाती हैं। कोई बने बनाये खाँचो में फिट नहीं बैठता तो उसे गलत करारा दे देना और उसको बदलने की कोशिश करना क्रूरता है, गलत है।

उन्होंने कहा, मैं अपनी लिखाई के जरिये इन्ही निर्धारित धारणाओं, स्टीरियोटाइप को तोड़ने की कोशिश कर रही हूँ। जितने लोग उतने तरीके और कोई तरीका किसी से बेहतर या कमतर नहीं। अनुराधा ने बताया,कि मैंने अपनी पहली किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ में जाने-अनजाने में कुछ धारणाएं तोड़ी थी। अपनी आने वाली किताब "लोग-जो मेरे अंदर रह गए" में मैं जानबूझ कर ऐसा कर रही हूँ। आगे की लिखाई में मैं सिर्फ औरों के स्टीरियोटाइप ही नहीं खुद के स्टीरियोटाइप तोड़ने की कोशिश करूँग�

 चर्चित चित्रकार और फैशन डिजाइनर मालविका राज ने परंपरागत कला का पुनरवलोकन :अस्मिता की दावेदारी पर कहा, मैं मधुबनी कला के माध्यम से समकालीन घटनाओं को अपने चित्रों में दर्शाती हूँ। मैंने नीफ्ट मोहाली, चंड़ीगढ़ से फैशन डिजाइनिंग की है पर चित्रकला के प्रति प्रेम ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। स्कूल के शुरुआती दौर में मैं मिथिला पेंटिंग सीखी थी। सीखने के दौरान ही मुझे पता चला कि शूद्र होने के कारण मैं मधुबनी चित्रकला की तांत्रिक शैली नहीं सीख सकती। मुझे बताया गया कि ब्राह्मण ही इस शैली में चित्रण कर सकते हैं। शूद्रों के लिए यह शैली वर्जित है। मैं इस अंधविश्वास से काफी आहत हुई। उन्हीं दिनों मैंने गौर किया कि मधुबनी चित्रों मे रामायण और महाभारत के पात्र तो हैं पर बुद्ध क्यों नजर नहीं आते। जबकि विश्व में भारत की पहचान बुद्ध से है।

 फिर मैंने बुद्ध, उनका धम्म तथा उनसे जुड़ी घटनाओं की 30 पेंटिंग की सिरीज 'द जर्नी' बनाई। यह मेरी शुरुआत थी। पारंपरिक विषयों से अलग होने के कारण मेरी कला को कुछ लोगो ने मधुबनी कला मानने से इनकार किया। मेरी कला की सराहना जितनी विदेशों और अन्य राज्यों में हुई उतनी मेरे गृह राज्य बिहार में नहीं हुई। अभी मैं मुख्यरूप से आंबेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार, नांगेली जैसे महापुरुषों के आदर्श एवं उनके कार्यों पर आधारित पेंटिंग बना रही हूँ।'भविष्य का हिन्दी लेखन और लेखक की भूमिका' पर कथाकार-गीतकार नीलोत्पल मृणाल ने कहा, नई पीढ़ी के लेखन से ही हिंदी साहित्य और समाज को नई उर्जा मिलेगी। उसे पता है कि बाजार के लिए लिखना बाजारू होता नही है भविष्य के लेखन पर बात करते वक्त यह देखना होगा कि आखिर हमारा वर्तमान का लेखन संसार किस दिशा में है और इसमें लेखक कहाँ है? वर्तमान का एक बड़ा हिंदी वर्ग मानता है कि हिंदी आजीविका नहीं दे सकती। मैं भविष्य के

जमीनी पत्रकार और अनुवादक अभिषेक श्रीवास्‍तव ने 'सांस्‍कृतिक टकरावों के दौर में अनुवाद की भूमिका' पर कहा, भाषाओं की विविधता, मुहावरों की बहुलता, यदि हमें एक सामान्‍य सत्‍य (कथन) पर पहुंचने से रोकती है तो जाहिर है कि एक अनुवादक दो भाषाओं के बीच आवाजाही की प्रक्रिया में कहीं न कहीं सत्‍य का संधान कर रहा होता है। इस संधान में जो अंतिम उत्‍पाद वह रचता है, बेशक उसकी निशानदेही उतनी स्‍पष्‍ट नहीं हो लेकिन इतिहास पर उसका यह उत्‍पाद अपनी एक छाप छोड़ता है।
बीते सौ साल में इस पर बहुत बहस हुई है कि एक अनुवादक की ईमानदारी किसके प्रति हो- मूल रचना के प्रति या जिस भाषा में रचना को अनूदित किया जाना है उसके पाठक के प्रति। इस सवाल से जूझते हुए मूल रचना के सत्‍व को प्राथमिक माना जा सकता है। वही सत्‍व, जिस बिंदु को पकड़ना अच्‍छे अनुवादक का धर्म है। यह बिंदु पकड़ में आ गया, तो फिर अनूदित भाषा के पाठक की चिंता अलग से नहीं करनी क्‍योंकि सत्‍य वहीं कहीं है- मूल भाषा के पाठक का भी और अनूदित भाषा के पाठक का भी।

यही सत्‍य भाषाओं की बहुलता के बीच सफोकेट हो रहा होता है- जो कहा नहीं जा पाता; जो चिंतन के स्‍तर पर निरूपित होता है, चुपके से; बिना किसी फुसफुसाहट के। उन्होंने कहा कि अनुवादक सिर्फ शब्दों का रूपान्तर नही करता वह एक संस्कृति को किन्हीं अन्य संस्कृति के लोगों के बीच ले जाता है।उसकी अहमियत को समझते हुए ही अनुवादक को राष्ट्र निर्माता कहा गया है।इस मौके पर राजकमल प्रकाशन की ओर से अपने दो वरिष्ठ कर्मियों को राजकमल पाठक मित्र सम्मान 2022 भी प्रदान किया गया। उनमें पहले हैं श्री आर. चेतनक्रांति जो राजकमल प्रकाशन की संपादकीय टीम के वरिष्ठ सदस्य हैं। वे आलोचना पत्रिका के सह-संपादक हैं। उनका राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों और पत्रिकाओं की गुणवत्ता को निरंतर बनाये रखने

 गौरतलब है कि राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फरवरी 1947 को हुई थी। राजकमल का स्थापना दिवस, प्रकाशन दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेखकों, पाठकों और बौद्धिकों ने इसको अपने सालाना जलसे के रूप में अपनाया है। इस बार का आयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि इस बार राजकमल प्रकाशन अपने 75वें वर्ष में पहुँच गया । राजकमल आरंभ में एक प्रकाशन था। अपनी 75 वीं वर्षगांठ मनाते समय यह ऐसे एक प्रकाशन समूह के बतौर स्थापित हो चुका है, जिसके पास एक ओर स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन का सुदीर्घ अनुभव है, तो दूसरी ओर आने वाली पीढ़ियों की मानसिक-बौद्धिक जरूरतों को पूरा करने का दृढ़ संकल्प। राजकमल अपनी शुरुआत से लेकर आजतक स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी मिसाल यह आप है। माना जाता है कि राजकमल का इतिहास और आजादी बाद के आधुनिक हिंदी साहित्य का ही इतिहास है। 75वें वर्ष में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में इसकी पूरे वर्ष कार्यक्रम करने की योजना है।
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