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सृजन के नए शिखर स्पर्श करता 'सौन्दर्य के क्षण' निबन्ध संग्रह


सुरेखा शर्मा ० लेखिका /समीक्षक ० 

पुस्तक -- सौन्दर्य के क्षण (निबन्ध संग्रह )
लेखक - डाॅ○ रघुबीर सिंह बोकन 
प्रकाशक -हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन
पृष्ठ संख्या -112 , मूल्य -400/-

"ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम- कथा कहती हो,तज कोलाहल की अवनि रे ! "
महाकवि जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ उन्मुक्त उड़ान की ओर संकेत करती हैं- 'निराशा के क्षणों में ऐसे कल्पना लोक में विचरण करने को कहा गया है जहाँ न कोई दुख हो,न कोई पीड़ा हो और न ही कोई संताप। ' उपर्युक्त पंक्तियाँ हैं निबन्ध संग्रह 'सौन्दर्य के क्षण ' से निबन्ध 'कल्पना के क्षण' से। कल्पना की उन्मुक्त उड़ान में साहित्यकार समस्त सांसारिक दुख-दर्दों को भूल कर एक सुखद लोक में विचरण करता है।ऐसी विचारधारा के साथ लेखक की लेखनी चली है, एक चिंतक के रूप में। लेखक का मानना है कि इनसान चाहे तो अवकाश का जो समय उसे मिलता है उसे अकेलेपन में बिताकर ,उस समय पूर्ण एकान्त का सेवन करे क्योंकि चिन्तन अकेलेपन से उपजता है।यदि चिन्ता की जगह चिन्तन को जीवन का मूलमंत्र स्वीकार कर ले,तो उसके जीवन में दुख अवसाद व असफलता दस्तक दे ही नहीं सकते। 

लेखक ने जिन्दगी के दांव पेंचों को बहुत निकटता से देखते हुए, समझते हुए, चिन्तन करते हुए अपनी लेखनी के माध्यम से उन क्षणों को ,महान लेखकों के, महान पुरुषों के सुवचनों के उदाहरण देकर और अपनी अनुभूतियों को लिपिबद्ध कर 'सौन्दर्य के क्षण ' शीर्षक से निबन्ध संग्रह पाठकों को सौंपा है । जीवन की सच्चाइयों से परिचित करवाते निबन्ध अनुकरणीय हैं।निबन्ध पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने हर क्षण को जीया है। एक-एक विषय जीवन का पाठ पढ़ाता हुआ ,जीवन को संवारने व सार्थक करने वाला है । लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनकी लेखनी उन विषयों पर चली है जिनके साथ वे एकाकार हो सके ।

जीवन में एकान्त कितना जरूरी है, यह हमने कभी नहीं सोचा ।सोचा क्या , हम रहना ही नहीं चाहते एकान्त में। हम हर समय भीड़ का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। जबकि भीड़ में हमारा अस्तित्व और मस्तिष्क, दोनों खो जाते हैं। यदि मौलिक चिन्तन करना है तो एकान्त में रहना होगा । भीड़ एक व्यक्ति के इशारे पर चलती है।यदि उसने इशारा कर दिया कि मार- पीट शुरू तो देखते -ही - देखते उपद्रव मच जाएगा,क्योंकि विवेक शून्य जो हैं लोग भीड़ में । बिना कारण जाने भेड़ की तरह चल देते हैं। नेताओं के भाषण देने पर यदि एक ने ताली क्या बजाई तो सारी भीड़ ताली बजा देगी ।चाहे कुछ पता हो या न पता हो कि ताली किसी बात पर बजी। 'एकान्त के क्षण ' निबन्ध का एक बहुत ही सुंदर उदाहरण देखिए -एक बार हिटलर से एक पत्रकार ने उनकी सफलता का राज पूछा ,तो उन्होंने कहा -मेरी सफलता का रहस्य केवल चार व्यक्ति हैं।उन चार व्यक्तियों के विषय में आप पुस्तक में पढ़कर आनन्द ले सकेंगे ।अकेलेपन में कोई तो विशेष बात होगी अन्यथा ऐसा क्यों कहा जाता कि 'समय मिले तो अकेले में सोच लेना।'
'
सौन्दर्य के क्षण ' अद्भुत, अद्वितीय व समाजोपयोगी कृति है जो सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज निबन्ध संग्रह है। लेखक एक ऐसे संवेदनशील साहित्यकार हैं,जिन्हें पढ़कर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के शब्द स्मृति पटल पर स्वतः ही उभर आते हैं।उनके शब्दों में- 'साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है।उसे अपने अंदर भी और बाहर भी एक कमी- सी प्रतीत होती है। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।' इसलिए वे कहते हैं - ''हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा,जिसमें उच्च चिन्तन हो,स्वाधीनता का भाव हो,सौन्दर्य का सार हो,सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे,सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।" इस प्रकार 'सौन्दर्य के क्षण ' निबन्ध संग्रह उपरोक्त कसौटी पर खरा उतरता है ।

'पेड़ से गिरा पत्ता और स्कूल से भागा हुआ बच्चा यदि पतन के पर्याय नहीं हैं तो प्रतीक अवश्य हैं। या यूं कह लीजिए अध्यापक की नौकरी पा लेने के बाद भी जो शास्त्रार्थ करने से घबराता हो,क्षत्रिय होने पर भी चुनौती का सामना करने से भी कतराता हो,साहित्यजीवी होने पर भी 'अनुभूति' लिखने से सकुचाता है ,तो यह उसकी अयोग्यता का प्रमाण नहीं तो परिचायक अवश्य है ' ----इन पंक्तियों को पढ़कर लेखक का मंतव्य तो समझ आ ही गया कि लेखक क्या कहना चाहता है।उपर्युक्त पंक्तियाँ हैं निबन्ध 'अनुभूति के क्षण ' से।कार्ल मार्क्स के कथन का उदाहरण निबन्ध को समझने में सहायक होगा ।उनका कहना है कि अच्छा श्रमिक बनने के लिए दिमाग छोटा और शरीर बड़ा होना चाहिए; अच्छा अध्यापक बनने के लिए दिमाग बड़ा और शरीर छोटा होना चाहिए ।'

अनुभूति ही हमेंशा महान लक्ष्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्रदान करती है। जैसे अनुभूति काव्य का मूल तत्त्व है,वही कवि की प्रेरणा बनकर महान कृति को जन्म देती है। जब समाज की घटनाएँ कवि के मन को चुभती हैं तो नई रचना का जन्म होता है । लेखक ने निबन्ध में दुर्लभ व सटीक उदाहरण देकर विषय को रूचिकर बनाया है। इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि कवि या लेखक हर कोई नहीं बन सकता ।एक बार एक युवा नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार 'अर्नेस्ट हैमिंग्वे' के पास गया और कहने लगा कि -"मैं साहित्यकार बनना चाहता हूँ "--तो उन्होंने पूछा -"क्यों बनना चाहते हो ?और यदि बनना चाहते हो तो बताओ तुम्हारे जख्म कहाँ हैं,घाव कहाँ हैं?" कितनी गहरी बात कही उन्होंने -"मस्त मनमुदित व्यक्ति के लिए साहित्य की दुनिया नहीं है।बिना संघर्ष के कविता नहीं आती।जब पेट भर जाता है और कोठी खड़ी हो जाती है तो कविता वहाँ से भाग जाती है।दर्द में,पीड़ा में ,

कविता स्वतः फूट पड़ती है । तभी तो सुमित्रानंदन पन्त लिखते हैं----"वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान "

ऐसे अनेक रोचक व ज्ञानवर्धक उदाहरण निबन्ध में पढ़े जा सकते हैं । निबन्ध व्यक्ति के भावात्मक अनुभूति का लिखित रूप होता है।निबन्ध आकार में लघु /दीर्घ, सुसंगत एवं आत्मसमर्पण रचना होती है।निबन्ध चाहे वर्णनात्मक हों,विचारात्मक या भावात्मक हों.....लेखक उसमें अपना हृदय खोलकर रख देता है।वह अपनी अनुभूति या चिंतन को निःसंकोच पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है।लेखक और पाठक के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली निबन्ध विधा सबसे सरल व प्रशस्त सेतु होती है।निबन्धकार उपदेशक के रूप में स्वयं को नहीं देखता••वह तो केवल अपने विचार व भावनाएँ उन्मुक्त भाव से निबन्ध में व्यक्त करता है।निबन्ध पढ़ने से पारस्परिक संवाद -वार्तालाप व बातचीत का-सा आनन्द मिलता है और एक सौजन्य व सौहार्दपूर्ण वातावरण का सृजन होता है ।इन सभी खूबियों से परिपूर्ण है भावनात्मक शैली पर आधारित निबन्ध संग्रह 'सौन्दर्य के क्षण' के निबन्ध ।

राजकीय कन्या महाविद्यालय (गुरुग्राम )के एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग से सेवानिवृत्त , प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन (प्रयाग ) गुरुग्राम के साहित्य मंत्री साहित्य सृजन में निरंतर रत संवेदनाओं की गंभीरता संजोए हुए, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ रघुबीर सिंह बोकन बधाई के पात्र हैं । मैं उनका अभिवादन -अभिनन्दन व उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ----'सौन्दर्य के क्षण ' निबन्ध संग्रह कृति के लिए ।इससे पूर्व भी उनकी साहित्यसर्जना के रूप में सात कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं- 'भारतीय संस्कृति का स्वरूप' ,'नागार्जुन का प्रगतिवादी काव्य' ,'पन्त -काव्य में सांस्कृतिक चेतना ', 'प्रेरणा के पल' (काव्य संग्रह ),हिन्दी साहित्य के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में भी लेखक ने अपनी प्रतिभा से Essence of Education (English Essays ). Fifty Years of Excellence (Souvenir) परिचय करवाया है

साहित्य की गद्य एवं पद्य विधा में लेखन कर चुके डाॅ बोकन जी को उद्वेलित करने वाली अनुभूतियों का कलेवर उनके निबन्ध संग्रह 'सौन्दर्य के क्षण ' में देखने को मिलता है ।उनके लेखन में भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती है । लेखक ने अपने विचारों को पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है ।जिसमें वे पूर्णतः सफल भी हुए हैं। 'सौन्दर्य के क्षण ' कोई कविता संग्रह, कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह ,काव्य या गीत संग्रह, की तरह मनोरंजन करने वाला संग्रह नहीं है ,अपितु एक ऐसा अनूठा संग्रह है जो जिंदगी की राह पर चलते हुए पग-पग पर मिलने वाले,कठिन से कठिन प्रश्नों का उपयुक्त हल ढूंढने की सामर्थ्य रख, जीवन की राह को आसान करने वाला है।इसीलिए मैथिली शरण 'गुप्त' ने कहा भी है--
'
केवल मनोरंजन ही कवि का न कर्म होना चाहिए
उस में उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए
।'

निस्संदेह संग्रह के निबन्ध 'भावुकता के क्षण', 'अनुभूति के क्षण', 'प्रेम के क्षण' व अन्य निबन्ध पढ़कर पाठक वर्ग स्वयं को ऊर्जावान महसूस करेगा । लेखक ने जीवन की विसंगतियो का सूक्ष्म निरीक्षण किया और अपनी मौलिक शैली में खूबसूरत ढंग से बयान किया है ।उनकी कल्पनाएँ जीवन की विसंगतियों और विरोधाभासों से जो उपजी हैं इसलिए मानव-मन की अतल गहराई को छूने और आज की स्थितियों का बखूबी विश्लेषण इन निबन्धों में देखा जा सकता है । संग्रह में 7 निबन्ध हैं जिन्होंने विस्तृत आकार लेकर जीवन के विभिन्न रूपों से बखूबी परिचय करवाया है। लेखक ने अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी निबन्ध को कथ्यात्मक एवं लालित्यपूर्ण शैली से मंडित करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है ।जिस सहजता और सच्चाई से अपने अनुभवों को कृति में संजोया उसी के अनुरूप भाषा को भी सहज व सरल लिखा। निबन्धों में गद्यात्मक कसाव के साथ-साथ काव्यात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं, जिससे निबन्ध नीरस व उबाऊ नहीं लगते । उदाहरणार्थ ----

'हम चाकर रघुबीर के, पटभ लिखो दरबार
तुलसी अब का होहिंगे,नरेश को मनसबदार।'
इसी तरह --
' सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम'
आवत-जावत टूटी पन्हैया बिसरि गयो हरिनाम
जाको मुख देखे दुख लागै, ताको करन परि परनाम
कुंभनदास लाल गिरिधर बिन, यह सब झूठा धाम।

जीवन के विभिन्न पहलुओं का चिन्तन व जीवन की सच्चाइयों से परिचित करवाता संग्रह आज की युवा पीढ़ी ,साहित्यकार व सभी वर्ग के पाठकों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध होगा ।आज के व्यस्त व असंवेदनशील समाज में जब संवेदना से सरोकार समाप्त होता जा रहा है तो इस प्रकार की कृतियों की वास्तव में ही आवश्यकता है ।मूल्यवान व सार्थक कृति के लिए लेखक को हार्दिक बधाई देती हूं व उनके स्वस्थ व दीर्घायु होने की ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वे साहित्य साधना में लीन रहें।शुभकामनाओं के साथ ---
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