० सुरेखा शर्मा समीक्षक ०
लेखिका- कमल कपूर
संस्करण प्रथम - 2021
प्रकाशक--अयन प्रकाशन,नयी दिल्ली
मूल्य--700/-,पृष्ठ संख्या -340..
"माना कि मुश्किलें सफलताओं के दरवाजे बंद करती हैं पर हर दरवाजे की चाबी तो होती है न? ••••उम्मीद की चाबी•••कोशिश की चाबी। हम ज्यादा तो नही जानते ,बस इतना ही कहेंगे -
"मुश्किलों से डर कर भागना आसान होता है ।
जिन्दगी का हर कदम इम्तिहान होता है।
मुश्किलों से भागने वाले को कुछ नहीं मिलता।
मुश्किलों से लड़ने वालों के कदमों में जहान होता है" (पृष्ठ संख्या 78)
ये कुछ पंक्तियाँ है ऊर्जस्वी कलमकार, कहानीकार, अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से सम्मानित , वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीया कमल कपूर द्वारा लिखित उपन्यास 'अस्मि' से। जिसका शीर्षक ही अपनी ओर ध्यान खींचता हो तो उपन्यास का कथानक कितना रूचिकर होगा इसका आनन्द तो पाठक उपन्यास पढ़कर ही उठा सकेंगे ।उपन्यास का शीर्षक 'अस्मि ' उत्सुकता पैदा करता है ।यह उत्सुकता प्रमुख अध्याय से लेकर अंत तक बनी रहती है। यह कथा की नायिका शिप्रा सरीन के जीवन की कहानी है। उसके जीवन के विविध पक्षों को उपन्यास लेखिका ने विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभारा है, यथा- आलोक, मधुरिमा, अनिकेत, अपूर्व, श्रेया, नमन,देविका चटर्जी व अन्य लोग ।उपन्यास का कथा- सूत्र जुड़ता है तो अविरल चलता जाता है। पात्रों का वर्णन लेखिका ने तन्मयता से किया है । कहानी की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है--
हम महान भारतीय संस्कृति की बड़ी- बड़ी बातें तो खूब करते हैं पर कड़वी सच्चाई तो यह है कि अन्दर से हमारा दायरा बहुत तंग है।इसी संकीर्ण मानसिकता को उकेरा गया है इस कृति में। जब नायिका के पति आलोक शिप्रा पर आरोप लगाकर बेरहमी से बाँह पकड़कर कमरे में धकेलते हुए तलाक के कागजों पर साइन करने को कहते हैं ,
"तूने मेरे खानदान पर कालिख पोती है,तेरे सारे साहित्यकारों के सामने जलील करूंगा तुझे फिर निकलने दूंगा घर से।तेरी हड्डी पसली तोड़ कर बिस्तर पर पटक दूंगा हमेशा के लिए फिर देखूंगा कितनी कहानियाँ लिखती है•••।"
नायिका अपना वजूद खोजने बाहर क्या निकली कि पति का पौरुष आहत हो गया और आरोप-दर-आरोप••••लांछन- ही -लांछन •••एक अंतहीन सिलसिला चल निकला !
जिन्दगी का हर कदम इम्तिहान होता है।
मुश्किलों से भागने वाले को कुछ नहीं मिलता।
मुश्किलों से लड़ने वालों के कदमों में जहान होता है" (पृष्ठ संख्या 78)
ये कुछ पंक्तियाँ है ऊर्जस्वी कलमकार, कहानीकार, अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से सम्मानित , वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीया कमल कपूर द्वारा लिखित उपन्यास 'अस्मि' से। जिसका शीर्षक ही अपनी ओर ध्यान खींचता हो तो उपन्यास का कथानक कितना रूचिकर होगा इसका आनन्द तो पाठक उपन्यास पढ़कर ही उठा सकेंगे ।उपन्यास का शीर्षक 'अस्मि ' उत्सुकता पैदा करता है ।यह उत्सुकता प्रमुख अध्याय से लेकर अंत तक बनी रहती है। यह कथा की नायिका शिप्रा सरीन के जीवन की कहानी है। उसके जीवन के विविध पक्षों को उपन्यास लेखिका ने विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभारा है, यथा- आलोक, मधुरिमा, अनिकेत, अपूर्व, श्रेया, नमन,देविका चटर्जी व अन्य लोग ।उपन्यास का कथा- सूत्र जुड़ता है तो अविरल चलता जाता है। पात्रों का वर्णन लेखिका ने तन्मयता से किया है । कहानी की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है--
लेखिका और नायिका का 'वैल्यू बाजार' में शापिंग के दौरान एक-दूसरे से मिलना। जो एक संयोग ही था । कुछ व्यक्ति स्वतः ही अपनी ओर बिना जान- पहचान के भी आकर्षित कर लेते हैं।ऐसा ही है उपन्यास की नायिका का प्रभावशाली व्यक्तित्व । गौरवर्ण ,सुन्दर सौम्य ,आकर्षक इतनी कि उनकी उम्र का अनुमान लगाना भी मुश्किल ।पर चेहरे पर हमेशा भावशून्यता। जिसने लेखिका को अपनी ओर आकर्षित किया ।संध्या समय नंदन वन में सैर करते हुए नायिका का पुनः मिलन। शांत चित्त,शांत मन, प्रकृति सौंदर्य को निहारते हुए कभी- कभी वे हल्की सी स्मित मुसकान से लेखिका का स्वागत करती हैं।प्रत्युत्तर में लेखिका भी मुस्कुरा उठती हैं । लेकिन अचानक चक्कर आने से नायिका को गिरने से बचाने में लेखिका का उन्हें अपनी बांहों में उठाना और प्राथमिक उपचार पूरा करके कहना-"आप अपने घर से किसी को बुला लीजिए ।" वे कहती हैं--
"मेरे घर में कोई नहीं है।अकेली रहती हूँ मैं।" सर्द श्वास लेते हुए कहा । "चलो मैं छोड़ देती हूँ । आपका शुभ नाम? ''
वे बोलीं- 'शिप्रा•••शिप्रा सरीन।'' 'शिप्रा' नाम लेखिका के अन्तर्मन को भिगो गया। क्योंकि शिप्रा नदी की धारा की तरह ही वे शीतल और शांत लग रही थी। लेखिका ने अपना नाम 'मधुरिमा' बताते हुए मित्रता की कभी न खुलने वाली गिरह बाँध ली। 25 अध्यायों में बांटकर लिखा गया यह उपन्यास 'मिलना एक नदी से' शुरू होकर 'अंततः' पर खत्म होता है । उपन्यास के शीर्षक "अस्मि " में एक ऐसी अद्भुत शक्ति है कि नायिका स्वयं को इस शब्द से अंत में जोड़ पाती हैं। यह शब्द ही उपन्यास की विषयवस्तु को आगे लेकर चलता है । लेखिका और नायिका के बीच हुए वार्तालाप को पढ़ने के बाद कथावस्तु को अनुभव किया जा सकता है । दूसरे अध्याय में लेखिका ने 'राखी की रेशमी डोर' के माध्यम से उन रिश्तों को उकेरने की कोशिश की है कि कोई भी रिश्ता जुडता है तो दो के बीच नहीं अपितु परिवार के साथ जुड़ना चाहिए ।
वे बोलीं- 'शिप्रा•••शिप्रा सरीन।'' 'शिप्रा' नाम लेखिका के अन्तर्मन को भिगो गया। क्योंकि शिप्रा नदी की धारा की तरह ही वे शीतल और शांत लग रही थी। लेखिका ने अपना नाम 'मधुरिमा' बताते हुए मित्रता की कभी न खुलने वाली गिरह बाँध ली। 25 अध्यायों में बांटकर लिखा गया यह उपन्यास 'मिलना एक नदी से' शुरू होकर 'अंततः' पर खत्म होता है । उपन्यास के शीर्षक "अस्मि " में एक ऐसी अद्भुत शक्ति है कि नायिका स्वयं को इस शब्द से अंत में जोड़ पाती हैं। यह शब्द ही उपन्यास की विषयवस्तु को आगे लेकर चलता है । लेखिका और नायिका के बीच हुए वार्तालाप को पढ़ने के बाद कथावस्तु को अनुभव किया जा सकता है । दूसरे अध्याय में लेखिका ने 'राखी की रेशमी डोर' के माध्यम से उन रिश्तों को उकेरने की कोशिश की है कि कोई भी रिश्ता जुडता है तो दो के बीच नहीं अपितु परिवार के साथ जुड़ना चाहिए ।
शिप्रा और अनिकेत का रिश्ता राखी बाँधकर जुड़ा था ।जब शिप्रा ने अनिकेत की पत्नी को भाभी कहकर संबोधित किया तो उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा, "आप नेह- प्रेम के संबध रखें, सुख -दुख में शामिल हों पर इस उम्र में रिश्ता जोड़ना -निभाना न मुझे पसंद है, न ही मेरे बच्चे आदर देंगे इस रिश्ते को। जब खून के रिश्ते ही खूनी होते जा रहे हैं फिर बनावटी रिश्तों पर क्या भरोसा किया जाए?" लेकिन नायिका को रेशम की डोरी के रिश्ते पर अटूट विश्वास था।भाई- दूज पर भी टीका भेजा गया और अनिकेत ने संदेश के माध्यम से बताया "शुभ मुहूर्त में दूज का टीका लगा लिया है दी!" जिसे पढ़कर शिप्रा का रोम-रोम खिल उठा। जिंदगी के आखिरी मोड़ पर मिले निष्पाप व निर्दोष रिश्ते को शिप्रा ने अपनी जान देकर भी बचाने का प्रयास किया । लेकिन उसके पति आलोक की नज़रों में किसी भी रिश्ते की कोई अहमियत नहीं थी।
भारतीय पुरुष किसी भी स्त्री से / अपनी पत्नी से अपेक्षा रखते हैं कि वह सुशील हो,सद्चरित्र हो,पवित्र हो,सादा जीवन व उच्च विचारों वाली हो। भले ही स्वयं अवगुणों की खान हो।वे कभी यह सोचने का भी कष्ट नहीं करते कि स्त्री की /उसकी पत्नी की भी कुछ अपेक्षाएं हो सकती हैं ? वह उसकी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतर पाता है ? कभी नहीं सोचता। देखा जाए तो ये अपेक्षाएँ भी एक बंधन हैं। शिप्रा का पति आलोक भी एक ऐसा ही निकृष्ट प्रवृत्ति का प्राणी बन गया था । जिसे अपनी पत्नी का किसी से बात करना पसंद नहीं ।वह एक कुंठित व्यक्ति है•••ऐसा पति जो नहीं चाहता कि उसकी पत्नी उससे आगे निकल जाए। दूसरी औरतों से संबंध रखकर अपनी पत्नी को कष्ट देना ही जिसके जीवन का अंतिम लक्ष्य था। शिप्रा अपने उच्च स्तरीय लेखन के कारण साहित्य जगत में सम्मान जनक लेखिका का स्थान रखती हैं।
जिस कारण अन्य लेखक - लेखिकाओं से परिचय हो जाना स्वाभाविक है । एक ऐसी ही पत्रिका की सम्पादिका शैलजा राणावत तलाक शुदा जिसकी चरित्रहीनता के चर्चे आम थे उसने आलोक से अपना रिश्ता जोड़ना शुरू किया और शिप्रा को आलोक से दूर करना।शिप्रा अपनी गृहस्थी व लेखनी में डूबी रही। उसने ये नहीं देखा कि तुम्हारे साथ वाली साहित्यकार मछलियां आलोक की थाली में गिर चुकी हैं।उन सब ने आलोक के नजरिए को बदल दिया । गंदी तलैया में डूबकर मछलियों के सम्मोहन जाल में पूरी तरह जकड़ा हुआ आलोक हिंसक बन गया था।
उपन्यास नारी प्रधान है। लेखिका का सद्यप्रकाशित उपन्यास 'अस्मि' समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति का आईना दिखाता है। एक स्त्री को जन्म से लेकर मृत्यु तक किन- किन संघर्षों ,विषम परिस्थतियों एवं विद्रुपताओं का सामना करना पड़ता है, उपन्यास उनका प्रतिबिंब है ।देखा जाए तो गांव की अनपढ़ स्त्रियों व शहरी पढ़ी -लिखी स्त्रियों की व्यथा -कथा एक जैसी ही है।गांव की स्त्री को जहाँ घर में चुल्हा -चक्की करनी होती है तो वहीं शहरी स्त्रियां मानसिक ,बौद्धिक व शारीरिक संघर्ष का सामना करती हैं।
उपन्यास नारी प्रधान है। लेखिका का सद्यप्रकाशित उपन्यास 'अस्मि' समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति का आईना दिखाता है। एक स्त्री को जन्म से लेकर मृत्यु तक किन- किन संघर्षों ,विषम परिस्थतियों एवं विद्रुपताओं का सामना करना पड़ता है, उपन्यास उनका प्रतिबिंब है ।देखा जाए तो गांव की अनपढ़ स्त्रियों व शहरी पढ़ी -लिखी स्त्रियों की व्यथा -कथा एक जैसी ही है।गांव की स्त्री को जहाँ घर में चुल्हा -चक्की करनी होती है तो वहीं शहरी स्त्रियां मानसिक ,बौद्धिक व शारीरिक संघर्ष का सामना करती हैं।
जैसा कि उपन्यास की नायिका के साथ घटित हुआ । जब भी उसकी कोई रचना पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती तो उन पत्रिकाओं को चिंदी -चिंदी कर देना, गाली- ग्लौच करना,चिल्लाना हर रोज का सिलसिला हो गया था। पढ़ने के बाद पाठकों की प्रशंसनीय प्रतिक्रियाओं के फोन आने पर गंदी गालियाँ और चरित्र पर लांछन लगाने की पराकाष्ठा अपनी सीमा लांघ चुकी थी। जो अपमान और जिल्लत की असहनीय स्थिति बन गई थी । घर से कदम निकालने के बाद मौत की गोद में पनाह लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता उसके पास ।लेकिन शिप्रा (नायिका ) कायर नहीं थी। नियति उसे जयपुर ले गई , कुछ दिन अपनी सहेली देविका चटर्जी के रही ।जयपुर से लोटने के बाद शिप्रा का जीवन और अधिक नारकीय बन गया था ,बात- बात पर लताड़ना शुरू कर दिया आलोक ने।
एक दिन बोला-"बता किस यार के पास गई थी ? किस के साथ भागी थी?नहीं तो टांगे तोड़ दूंगा तेरी।"" मैं भागी नहीं थी किसी के साथ ।क्यों गई थी•••? कहां गई थी? तुम सब जानते हो , फिर ••? "" चु•••व!खबरदार जबान खोली तो !अब निकली घर से तो पैट्रोल डाल कर न जला दिया तो अपनी माँ का जना नहीं।" आलोक फिर दहाड़ा-"बता 'उस' बंगाली के साथ क्या चक्कर है तेरा? "
"कौन बंगाली ? कैसा चक्कर? " शिप्रा बोली।
"ज्यादा भोली बनने का नाटक न कर•••तेरी सहेली का खसम, जिसे तू दादा कहती है•••क्या नाम है उसका ?•••हाँ ! आशुतोष चटर्जी ।" ऐसा घृणित आरोप सुन कर शिप्रा सिर पकड़ कर बैठ गई । बेटा अपूर्व घर पर नहीं था। बेटी श्रेया को स्थिति से अवगत कराया तो श्रेया ने अपने पास यू• एस•आने को कहा । कितनी मार्मिक स्थिति से गुजर रही होंगी वे , इन पंक्तियों से अनुमान लगाया जा सकता है । जब श्रेया पूछती है , "आप मेरे पास आना चाहेंगी?" शिप्रा --''हाँ-हाँ! जरूर आऊंगी, तुम्हारा अहसान होगा मुझ पर ।कम से कम छह महीने तो चैन से जीऊंगी।यह तो यू•एस• है।इस घर से निकाल कर कोई मुझे नरक में भी ले जाए तो खुशी-खुशी चली जाऊंगी ।" शिप्रा की व्यथित मनोदशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है ।
"कौन बंगाली ? कैसा चक्कर? " शिप्रा बोली।
"ज्यादा भोली बनने का नाटक न कर•••तेरी सहेली का खसम, जिसे तू दादा कहती है•••क्या नाम है उसका ?•••हाँ ! आशुतोष चटर्जी ।" ऐसा घृणित आरोप सुन कर शिप्रा सिर पकड़ कर बैठ गई । बेटा अपूर्व घर पर नहीं था। बेटी श्रेया को स्थिति से अवगत कराया तो श्रेया ने अपने पास यू• एस•आने को कहा । कितनी मार्मिक स्थिति से गुजर रही होंगी वे , इन पंक्तियों से अनुमान लगाया जा सकता है । जब श्रेया पूछती है , "आप मेरे पास आना चाहेंगी?" शिप्रा --''हाँ-हाँ! जरूर आऊंगी, तुम्हारा अहसान होगा मुझ पर ।कम से कम छह महीने तो चैन से जीऊंगी।यह तो यू•एस• है।इस घर से निकाल कर कोई मुझे नरक में भी ले जाए तो खुशी-खुशी चली जाऊंगी ।" शिप्रा की व्यथित मनोदशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है ।
हम महान भारतीय संस्कृति की बड़ी- बड़ी बातें तो खूब करते हैं पर कड़वी सच्चाई तो यह है कि अन्दर से हमारा दायरा बहुत तंग है।इसी संकीर्ण मानसिकता को उकेरा गया है इस कृति में। जब नायिका के पति आलोक शिप्रा पर आरोप लगाकर बेरहमी से बाँह पकड़कर कमरे में धकेलते हुए तलाक के कागजों पर साइन करने को कहते हैं ,
"तूने मेरे खानदान पर कालिख पोती है,तेरे सारे साहित्यकारों के सामने जलील करूंगा तुझे फिर निकलने दूंगा घर से।तेरी हड्डी पसली तोड़ कर बिस्तर पर पटक दूंगा हमेशा के लिए फिर देखूंगा कितनी कहानियाँ लिखती है•••।"
नायिका अपना वजूद खोजने बाहर क्या निकली कि पति का पौरुष आहत हो गया और आरोप-दर-आरोप••••लांछन- ही -लांछन •••एक अंतहीन सिलसिला चल निकला !
उपन्यास में जो कथा वर्णन है, उसको पढ़ते हुए पाठक वर्ग को ऐसा एहसास होगा कि एक -एक घटना चलचित्र की भाँति घटित हो रही है । एक उपन्यासकार के लिए ऐसा होना बहुत जरूरी है,अन्यथा उपन्यास पढ़ने का आनंद ही नही आ पाएगा । यही कारण है कि उपन्यास में लेखिका ने 'स्त्री' को ,उसके वजूद ,उसकी दृढ़ता को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है ।लेखिका ने कथा के केन्द्र में स्त्री जीवन को रखा है।उन्होंने बिना किसी दुविधा के स्त्री जीवन की मर्मांतक पीड़ा, उसके जीवन संघर्ष उसकी अस्मिता और अस्तित्व के सवालों और संघर्षों को पहचाना है। लेखिका ने पारिवारिक समस्या एवं सामंजस्य को अपने उपन्यास का विषय बनाया है ।उपन्यास की नायिका शिप्रा अपने पति से अपनत्व पाना चाहती है वह चाहती है कि उसका पति उसके लेखन से ,उसकी प्रगति से खुश हो, पर ऐसा होने की बजाय होता इसके उल्टा है ।वह अपने ऊपर होते अत्याचार देखती है और सहती है, पर बोलती कुछ नहीं। यह उपन्यास अलग तरह के नारीवाद को लेकर चलता है ,जिसमें नारी सहज व स्वतंत्र जीवन की आकांक्षा तो रखती है, मगर वह पुरुष से आजादी भी नहीं चाहती । वह अपनी आजादी स्वयं निर्मित करती है ।उसे जीवंतता पसंद है ।लेकिन इसमें भी कोई दो राय नही कि जब उसके चरित्र पर लांछन लगता है तो किसी को क्षमा भी नहीं करती।
भारत का पुरुष वर्ग क्या चाहता है ? यह कोई नहीं समझ सकता । शिप्रा के माध्यम से इस उपन्यास में पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त एक ऐसी महिला की कहानी उस मनःस्थिति और बेचैनी को व्यक्त करती है,जब किसी निर्दोष के ऊपर झूठा आरोप लगाया जाता है और वह अपनी निर्दोषता को सबित करने में स्वयं को असहाय महसूस करता है। यहां बेटे अपूर्व की कायर प्रवृत्ति पर भी प्रश्न उठता है। उसकी भी पुरुषवादी मानसिकता है।उसके हृदय में माँ के लिए कोई स्थान नहीं।यह दर्द शिप्रा के हृदय को हरदम सालता है ।कहते हैं जगह बदल लेने से दर्द कम नहीं होता यह तो हम जहां जाते हैं साथ-साथ चलता है। उपन्यास की नायिका के साथ भी यही होता है।जो अपनी व्यथित मनःस्थिति से उबर नहीं पा रहीं । विदेश में भी दुख- सुख से सामना होता रहा। नए-नए व्यक्तियों से मुलाकातें होने लगी। विदेश जाने का मोह सबको होता है,लेकिन विदेश में भी भारतीय स्त्री को कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसका खुलासा करके लेखिका ने अपनी लेखकीय क्षमता का परिचय दिया है ।
जब शिप्रा ने अखबार में संदीप नारंग नाम की खबर पढ़ी कि उसने अपनी डाक्टर पत्नी को दहेज के लिए नस काटकर हत्या करने पर मजबूर किया ।दूसरी खबर नवविवाहिता सिमरन को जलाकर राख कर देता पति यदि वह उसके हाथ से छूट कर न भाग जाती।ऐसी ही अदिति की कहानी ।न जाने कितनी ऐसी कहानियां हैं जो हर रोज घटित होती हैं। शिप्रा को हैरान परेशान देखकर महिला संगठन की महासचिव मीना मलिक कहती हैं-" शिप्रा जी! कैलिफोर्निया हो या लाॅस एंजिल्स, न्यूयार्क हो या न्यूजर्सी, या फिर लंदन -जापान हो नारी शोषण और दहेज का घिनौना दानव समय और देश की सीमाओं को पार कर विदेशों तक फैल गया है।"
पाठक के मन में यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है,जो नायिका के मन में भी उठा , "कि पढ़ी -लिखी ,आधुनिक सोच वाली समझदार लड़कियाँ इस तरह शारीरिक शोषण और मानसिक यातनाएं क्यों झेलती हैं ? यौन शोषण क्यों सहती हैं ?" वास्तविकता से परिचय कराती अदिति इसका सटीक जवाब देते हुए कहती है--"भारतीय लड़की संवेदनशील होती है और अपने माता-पिता व परिवार की खुशी के कारण कि उनकी बेटी विदेश में सुखी है इस सपने को तोड़ना नहीं चाहती। उसे यह डर भी सताता है कि यदि विदेश से वापस जाती है तो 'जग हँसाई' होगी । जग हँसाई के कारण कितने कष्ट सहती हैं ये मासूम लड़कियाँ? " इसी तरह की कुछ खट्टी -कुछ मीठी अनुभूतियाँ लेकर शिप्रा यू•एस• से भारत लौटी कि जीवन में कुछ परिवर्तन आएगा।पर "जीना है तो लड़ना होगा।" जब स्वयं पर गुजरती है तो नारी सशक्तिकरण के नारे कितने थोथे लगते हैं,यह कोई शिप्रा से पूछे। विदेशी डायरी' में नायिका की अद्भुत जानकारियों व अनुभूतियों का लेखिका ने विस्तृत ब्योरा दिया है ।जिसे पढ़कर पाठक अवश्य लाभान्वित होंगे ।
उपन्यास में अनेक रोचक मोड़ आते हैं।हर मोड़ से पहले पाठकों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है कि अब क्या होगा? अपनी कल्पना की उड़ान भी भरते हैं कि शायद अब नायक अपनी गलती मानकर क्षमा माँग ले ।जबकि आगे चलने पर कहानी पाठक की कल्पना से कहीं बहुत आगे निकल जाती है ।लेखिका ने भारतीय नारी की संवेदना और उसकी पारिवारिक मनोदशा का सजीव चित्रण किया है साथ-ही साथ पति-पत्नी के बीच में तीसरे के आने से जो स्थिति उत्पन्न होती है उसका विस्तृत वर्णन कर समाज को चेतावनी दी है । लेखिका ने बड़ी ईमानदारी के साथ स्त्री पीड़ा का सच कहा है। उपन्यास में दुख -दर्द और असंतोष की कहानी है ।भारतीय समाज में नारी की स्थिति, उसकी पीड़ा और उसके जीवन संघर्ष को दिखाया है। जीवनानुभवों के दायरे में अनेक ऐसी घटनाएं व स्थितियाँ आती हैं जो प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को आंदोलित करती हैं।सामान्य व्यक्ति जहां कुछ सोचने के बाद भूला देता है पर रचनाकार उन्हें शब्द देकर किसी विधा का अंग बना देता है। उपन्यास में लेखिका ने कुछ ऐसी ही मर्मांतक पीड़ा को उकेरा है 'अस्मि ' उपन्यास में। जिसमें भारतीय संस्कारों में लिप्त स्त्री की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है--
'
'
नायिका के हाथ में फोन उसके पति आलोक को तीखा दंश दे गया•••पुरुष- अहं को ठेस लगने का दंश ।'
आलोक - मैने कहा था न तू मोबाइल नहीं रखेगी।शिप्रा --मैने भी कहा था न मोबाइल के बिना मेरा गुजारा नहीं।
आलोक -कुत्ता समझ रखा है मुझे कि भौंकता रहे, नहीं सुनूंगी इसकी बात।देख, अब तमाशा •••तेरे इस मोबाइल के 36 टुकड़े न किए तो मेरा नाम आलोक सरीन नही।"
आलोक - मैने कहा था न तू मोबाइल नहीं रखेगी।शिप्रा --मैने भी कहा था न मोबाइल के बिना मेरा गुजारा नहीं।
आलोक -कुत्ता समझ रखा है मुझे कि भौंकता रहे, नहीं सुनूंगी इसकी बात।देख, अब तमाशा •••तेरे इस मोबाइल के 36 टुकड़े न किए तो मेरा नाम आलोक सरीन नही।"
उपन्यास स्त्री की चेतना का उद्घोष है ।समाज की व्यवस्था से संघर्ष और उसके बाद की पीड़ा उपन्यास का सार है।सामाजिक व्यवस्था पर गहरी चोट है।शिप्रा की व्यथा पाठक को न केवल व्यथित करती है बल्कि सोचने पर भी विवश करती है। शीर्षकानुकूल 'अस्मि ' मर्मस्पर्शी उपन्यास है। लेखिका के पास एक विलक्षण सोच,कहानी कहने की कलात्मकता एवं रूचिकर कथानक है जो प्रारंभ से अंत तक पाठक को बाँधे रखता है। कथानक बेहद शक्तिशाली और शैली प्रवाहमान है।उपन्यास का संदेश है कि- स्त्री के साथ ही धोखा क्यों होता है?जो सृष्टि का निर्माण करती है, उसके साथ ये छल कैसा? क्या औरत होना पाप है ? जब पुरुष उसे जीने नहीं देना चाहता तो उसे गहरे काले धुएँ में घुटन और तड़प देने का भी कोई अधिकार नहीं। नए संदर्भों व प्रश्नों के साथ कृति के जीवंत दृश्य पाठकों के मन मस्तिष्क पर छाप छोड़ जाते हैं।
उपन्यास के बीच -बीच में काव्यात्मक अभिव्यक्ति ने कृति को और अधिक रूचिकर व पठनीय बना दिया है।नायाब प्रस्तुति देखिए --नायिका यथा नाम तथा गुण को सार्थक करती हैं ---
'केवल उत्सर्ग छलकता है ।
मैं दे दूँ और फिर न कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।'
एक बानगी और देखिए --
शिप्रा --''मुझे माफ कर देना मधु ! आज जी तनिक अच्छा नहीं था,सो तुमसे बात ठीक से नहीं कर पाई।"
मधुरिमा --पर आप तो रो रहीं थी दी!
शिप्रा --अरे पगली !बदली कभी-कभी बरस भी तो पड़ती है।वैसे भी आँसुओं का औरत की आँखों के साथ अटूट रिश्ता रहा है।
लेखिका तिक्त और अवसादित मन लिए घर लौटी तो ये चंद शब्द जेहन में आकर रुक गए--
'केवल उत्सर्ग छलकता है ।
मैं दे दूँ और फिर न कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।'
एक बानगी और देखिए --
शिप्रा --''मुझे माफ कर देना मधु ! आज जी तनिक अच्छा नहीं था,सो तुमसे बात ठीक से नहीं कर पाई।"
मधुरिमा --पर आप तो रो रहीं थी दी!
शिप्रा --अरे पगली !बदली कभी-कभी बरस भी तो पड़ती है।वैसे भी आँसुओं का औरत की आँखों के साथ अटूट रिश्ता रहा है।
लेखिका तिक्त और अवसादित मन लिए घर लौटी तो ये चंद शब्द जेहन में आकर रुक गए--
' आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोई थी अपने पानी में
उस दर्पण पर ,बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव वापस घर आया।
सोई थी अपने पानी में
उस दर्पण पर ,बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव वापस घर आया।
उपन्यास का अंत सुखद एहसास कराता है ।कथानक के सीमित होने पर भी कथा अत्यंत रूचिकर है । नायिका शिप्रा व नायक आलोक का अंत में मिलन न करवा कर लेखिका ने समस्त नारी शक्ति को महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि ," हे नारी! तुम्हारे अंदर अदम्य साहस और हर समस्या से जूझने की शक्ति है ।स्वयं को कमजोर न समझो !" उपन्यास की विषयवस्तु व कथा विस्तार हृदयग्राही है ।इस मार्मिक वर्णन ने मानवीय सभ्यता पर करारी चोट की है---"दर्द की उस गली से दोबारा गुजरने की हिम्मत नहीं मुझमें।जहाँ रोज -रोज का वह मरण पल -पल मार रहा था।इसलिए उस मरघट को छोड़ आई मैं। मैं खुद अपने साथ हूँ।खुद को पहचान लिया कि मैं हूँ••••अस्मि •••अहम् अस्मि ।"
कथानक वस्तुतः समयानुकूल है ।परिवेश की पकड़ व व्यापकता भी कहानी को अपने पाठक से बाँधे रखने में समर्थ है।कथाकार का मन स्वयं विषयवस्तु सेे एकाकार होकर चले तभी पाठक भी उससे एकाकार हो सकता है । यही लेखिका कमल कपूर के इस उपन्यास की विशेषता है । 'अस्मि' शीर्षक ही नहीं संपूर्ण उपन्यास का कलेवर ही रोचक है । उपन्यास लिखना कोई सरल कार्य नहीं है।विषय पर पकड़, भाषा -शैली ,शब्दों का चुनाव कृति की विशेषता रही है ।उपन्यास नारी समस्या प्रधान होकर समस्या निदान बन जाता है ।यदि हम साहित्यिक दृष्टि से देखें तो उपन्यास आज बहुत कम लिखे जा रहे हैं, कारण कि उपन्यास लिखना श्रमसाध्य कार्य है और आज का लेखक उपन्यास से कहानियाँ,कहानियों से कथा व लघुकथाओं पर आ गया है ।
यही स्थिति काव्य विधा की है कविताओं ने हाइकु का स्थान ले लिया है । यहां लेखिका आदरणीया कमल कपूर जी को हार्दिक धन्यवाद देना चाहूँगी ,जिन्होंने ये साहसिक कदम उठाकर हिन्दी उपन्यास जगत के साथ-साथ हिन्दी साहित्य जगत को समृद्ध किया है । ईश्वर से प्रार्थना है कि वे स्वस्थ एवं दीर्घायु हों।इसी तरह साहित्य रचना कर साहित्य वर्धन में अपना योगदान देती रहें।
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