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मुजीब रिज़वी की किताब, “पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” का लोकार्पण

० योगेश भट्ट ० 

नई दिल्ली : मशहूर आलोचक मुजीब रिज़वी की किताब 'पीछे फिरत कहत कबीर कबीर' गंगा-जमुनी तहजीब का पुख्ता सबूत देती है। उन्होंने अपनी मेधा और लेखन से अकादमिक जगत को तथा साहित्य को समृद्ध किया और अलग ढंग से सोचने का नजरिया दिया, जिसकी आज और ज्यादा जरूरत है। ये बातें कही दिवंगत आलोचक मुजीब रिज़वी साहब की हिंदी में प्रकाशित नई किताब, “पीछे फिरत कहत  कबीर कबीर” के लोकार्पण के मौके पर जाने माने विद्वानों ने। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब का लोकार्पण हैबिटैट सेंटर, में किया गया था

इस मौके पर वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि मुजीब साहब तुलसीदास को एक अलग ही परिप्रेक्ष्य में देखते है. वो तुलसी दास पर अपने निबंध की शुरुआत ही उनकी इन पंक्तियों से करते हैं “आग आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेट की” और बताते हैं कि वो पेट की आग से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। तुलसी दास को वो तथाकथित भक्ति के दायरे में नहीं देख रहे बल्कि एक अलग नज़र से उन्हें देख रहे थे। इतिहासकार सुधीर चंद्र ने मुजीब रिज़वी के जामिया  में बिताये वक़्त को याद किया. उन्होंने बताया की मुजीब रिज़वी वो महारथी थे जिनके दम से जामिया के हिंदी डिपार्टमेंट को ताक़त मिली.

आलोचक अपूर्वानंद ने कहा, आज जब कहा जा रहा है की हिंदुस्तान में कोई  गंगा-जमना तहज़ीब नहीं है, बल्कि सिर्फ़ गंगा की संस्कृति है तो मुजीब साहब की ज़रुरत और ज़्यादा महसूस होती है. मुजीब साहब की लिखाई तहज़ीबी संगम की निशान देही है. आलोचक अपूर्वानंद ने कहा, आज जब कहा जा रहा है की हिंदुस्तान में कोई  गंगा-जमना तहज़ीब नहीं है, बल्कि सिर्फ़ गंगा की संस्कृति है तो मुजीब साहब की ज़रुरत और ज़्यादा महसूस होती है. मुजीब साहब की लिखाई तहज़ीबी संगम की निशान देही है. उनके लिखावट में सांस्कृतिक आत्म विश्वास की झलक मिलती है। 

उनकी किताब “पीछे फिरत कहत  कबीर कबीर” में “मुजीब रिज़वी हमें सोचने का एक तरीक़ा प्रस्तावित करते हैं जो हमारे लिए बहुत मह्त्वपूर्ण है. मुजीब रिज़वी एक तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं. वो इस लिए भी क्यूंकि उनके पास वो क्षमता मौजूद थी.  हिंदी, उर्दू,फारसी और संस्कृत, ब्रज और अवधी -इन सारी  भाषों और संस्कृतियों का ज्ञान था. वो तुलसी दास और मीर अनीस में तुलना करने की ताक़त रखते थे और कह सकते थे की तुलसी दास और मीर अनीस तक़रीबन एक तरह के ख़यालात पेश कर रहे हैं। लेखक रविकांत ने कहा कि मुजीब साहब हर लेख में एक अहम सवाल से जूझते हैं कि अगर कोई चीज़ आ रही है तो कहाँ से आ रही है और ये सवाल उन्हें कई पेचीदा रास्तों में ले जाता है।

इससे पहले लोकार्पण कार्यक्रम की शुरुआत महमूद फ़ारूकी ने मुजीब साहब और उनकी बेगम अज़रा रिज़वी को याद करते हुए की. उन्होंने बताया की “पीछे फिरत कबीर कबीर” को मुक़म्मल शक़्ल देने में एक बहुत बड़ा हाथ अज़रा रिज़वी साहेबा का ही था. जब मुजीब रिज़वी का इंतेक़ाल हुआ, तो अज़रा साहिबा ने बहुत कोशिशों से उनके ये लेख एकत्र किये जो आज इस किताब की शक्ल में सामने हैं।

महमूद फ़ारूकी ने कहा कि अज़रा रिज़वी हर क़दम पर मुजीब साहब के  साथ मौजूद थीं। यह असग़र वजाहत के लेख (जो महमूद फारूकी ने कार्य क्रम के दौरान पढ़ा ) से भी पता चलता है. अपने लेख में असग़र वजाहत ने एक किस्से का जिक्र किया  कि कैसे अज़रा साहिबा मुजीब साहब के पीएचडी के दौरान उनका  हर तरह का सहारा बनी हुई थी. यहाँ तक जब मुजीब साहब ने थीसिस लिखने से  बचने के चक्कर में 

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