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कविता // सीमा का प्रहरी

डॉ० मुक्ता ० 

सीमा पर लड़ने वाला

हर प्रहरी जवान

भारत माता का सपूत होता

और उसके प्राण

देश की धरोहर

देश पर मर-मिटना

उसका दायित्व

वास्तव में वह दाता है--

अमनो-चैन का

सुक़ून का,स्वतंत्रता का

परंतु उसके शहीद होने पर

क्या हम दे पाते हैं प्रतिदान

उसकी शहादत का

क्या हम व्यवस्था कर पाते हैं

उसके परिवार व बच्चों के लिये

सुरक्षित भविष्य की

और मूलभूत आवश्यकताओं की

पूर्ति के निमित्त पेंशन की

जिससे मिल सके उन्हें सम्मान-पूर्वक

जीवन बसर करने का ह़क

हमारे नुमाइंदे कब समझते हैं

उस गरीब सैनिक

व उसके परिवारजनों पर

टूटते दु:खों के पहाड़ का दर्द

उसकी विधवा पत्नी की

सूनी मांग व कलाइयां देख

उनके भीतर का लावा क्यों फूट नहीं जाता

विरहाग्नि की टीस,कसक

वेदना में तिल-तिल कर जलती-मरती

वह अभागिन अपने कंधों पर

बच्चों व माता-पिता का बोझ लादे

आजीवन मनचलों की वासना भरी

निगाहों का सामना करती

अपनी अस्मत को बचाती

पग-पग पर समझौता करती

हर-पल शून्य नेत्रों से निहारती

कर्त्तव्य-भाव के नीचे दबी रहती

काश!हमारे देश के कर्णाधार

समझ पाते उस विधवा की

आंखों से बहते अजस्त्र आंसुओं का दर्द

माता-पिता की इकलौती संतान के

खो जाने की हृदय-विदारक चीत्कार

अनुभव कर पाते

तो वे चंद सिक्कों के लिये

अपने देश की अस्मत का

सौदा कभी नहीं करते

★★★
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