पुस्तक --'स्वर मौन के' (हाइकु संग्रह )
लेखिका - सुषमा भंडारी
प्रकाशन - जूली पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या -87,मूल्य-300₹/
हिन्दी काव्य वाटिका में जापानी पुष्प
शब्द भंडार
दे इतना मुझे माँ
रहूँ बांटती।'
'मेरी वाणी में
मधुरता का वास
तुम से ही माँ ।'
जलाती नहीं
माटी के दीप कभी
जलती हूँ मैं।
ये कुछ हाइकु हैं काव्य जगत में माहिया,ग़ज़ल, गीत,कविता और क्षणिकाओं के माध्यम से अपनी अलग पहचान बना चुकी कलम की धनी कवयित्री श्रीमती सुषमा भंडारी के हाइकु संग्रह शीर्षक 'स्वर मौन के' से । निस्संदेह हिन्दी काव्य जगत में हाइकु विधा ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है । जिस प्रकार कहानी का स्थान लघुकथा ने लिया उसी प्रकार कविता के स्थान पर हाइकु लिखे जाने लगे।जो कम शब्दों में अपनी बात कह गागर में सागर का काम करते हैं। जापान में जन्मे 5-7-5 वर्णों वाले त्रिपदीय छंद हिंदी हाइकु ने अब हिन्दी काव्य जगत में अपना स्थान ले लिया है । कवयित्री ने हाइकु के विषय में पूर्ण रूप से अध्ययन करके ही इस विधा पर अपनी लेखनी चलाई है ।
शब्द भंडार
दे इतना मुझे माँ
रहूँ बांटती।'
'मेरी वाणी में
मधुरता का वास
तुम से ही माँ ।'
जलाती नहीं
माटी के दीप कभी
जलती हूँ मैं।
ये कुछ हाइकु हैं काव्य जगत में माहिया,ग़ज़ल, गीत,कविता और क्षणिकाओं के माध्यम से अपनी अलग पहचान बना चुकी कलम की धनी कवयित्री श्रीमती सुषमा भंडारी के हाइकु संग्रह शीर्षक 'स्वर मौन के' से । निस्संदेह हिन्दी काव्य जगत में हाइकु विधा ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है । जिस प्रकार कहानी का स्थान लघुकथा ने लिया उसी प्रकार कविता के स्थान पर हाइकु लिखे जाने लगे।जो कम शब्दों में अपनी बात कह गागर में सागर का काम करते हैं। जापान में जन्मे 5-7-5 वर्णों वाले त्रिपदीय छंद हिंदी हाइकु ने अब हिन्दी काव्य जगत में अपना स्थान ले लिया है । कवयित्री ने हाइकु के विषय में पूर्ण रूप से अध्ययन करके ही इस विधा पर अपनी लेखनी चलाई है ।
जिसमें वे पूर्णतः सफल भी हुई हैं।वे कहती हैं---
'प्रश्नों का हल । ढूंढें कहीं इकट्ठे ।आ मिल चल।'
'प्रश्नों का हल । ढूंढें कहीं इकट्ठे ।आ मिल चल।'
रचनाकार चाहे किसी भी विधा पर अपनी लेखनी चलाए वह अपने परिवेश से अछूता नहीं रह सकता। इसीलिए 'स्वर मौन के ' हाइकु संग्रह में भी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक ,धार्मिक व जीवन के तमाम पहलुओं पर लिखे हाइकु अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे ।संग्रह का शीर्षक 'स्वर मौन के' अपनी सार्थकता लिए अत्यन्त प्रभावशाली बन पड़ा है। शाब्दिक अर्थ देखा जाए तो दोनों शब्द एक-दूसरे के विपरीत हैं।यही शीर्षक की विशेषता है कि मौन रहते हुए भी पाठक के लिए स्वर बन गए ,जिसे पढ़कर पाठक वर्ग गुनगुनाने पर विवश हो जाता है ।कुछ बानगी देखिए - 'कोशिशें होंगी ।तभी तो कामयाबी ।लगेगी हाथ।'
× × ×
'हवा का रुख
कब बदल जाए
तू संभल जा'
× × ×
'हवा का रुख
कब बदल जाए
तू संभल जा'
ये पाँच -सात -पाँच के अनुक्रम में व्यवस्थित हैं। किसी भी पंक्ति में आधे अक्षर की गिनती नहीं होती तथा तुकांत की भी अनिवार्यता नही होती।विशेष बात तो यह है कि जो लिखा जाए वह प्रभावित करने वाला भाव हो।इस हाइकु संग्रह की एक विशेषता है कि कवयित्री की लेखनी से कोई भी विषय नहीं छूटा बल्कि एक ही विषय पर कई-कई हाइकु रचे गए । प्रत्येक विषय को अलग -अलग दृष्टि से देखकर, गुनकर ,परख कर लिखा गया है । प्रकृति, प्रेम, होली,दीपावली, मेरा देश,समाज, बेटी, माँ,नारी, पुष्प, कमल, भ्रष्टाचार, कुर्सी ,व्यसन, जीव-जंतु, परिंदे और सतरंगी आदि अनेक विषयों के अन्तर्गत हाइकु लिख कर अपनी सूझबूझ का परिचय दिया है,बानगी प्रस्तुत है --
'
'
मुनाफाखोरी
पैदा करता आया
सदा से होरी
× × ×
'ये भ्रष्टाचार
करना होगा खत्म
अब तो यार,
पैदा करता आया
सदा से होरी
× × ×
'ये भ्रष्टाचार
करना होगा खत्म
अब तो यार,
समाज में भ्रष्टाचार, लूट -खसोट, आतंक ,स्वार्थ, नफरत,ईर्ष्या की जड़ें अपना गहरा स्थान बना चुकी हैं ।जो तीव्रता से फैलती जा रही हैं।कवयित्री की पीड़ा व दर्द इनमें देखा जा सकता है --
'
'
गूंगी बहरी
सरकार हमारी
चिल्लाते रहो'
× × ×
'ढर्रे -ढर्रे में
घुसा है भ्रष्टाचार
जर्रे -जर्रे में'
मेरा देश --
'ये मेरा देश ।
बदल गया कैसे
सोचती हूँ मैं'
× × ×
'अपना देश
बेगाना व्यवहार
आधी आबादी '
साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक है ।वह अपने साहित्य के माध्यम से समाज में फैल रही विषम परिस्थितियों को विसंगतियों को उकेरता है और समाज को आईना दिखाता है। यह हाइकु संग्रह इसका ज्वलंत उदाहरण है ।जिसमें हर विषय पर लेखनी चली है। संग्रह के सभी हाइकु सहज व सरल भाषा में हैं। जो समाज की विसंगतियों के प्रति चैतन्य बोध उत्पन्न करते हैं---'कैसा अंधेर । नीचे छिपा फूलों के । बारूदी ढेर।' आज समाज में बेटियों की क्या स्थिति है ये किसी से छिपी नहीं है। एक माँ के मन की व्यथा को देखिए ---
सरकार हमारी
चिल्लाते रहो'
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'ढर्रे -ढर्रे में
घुसा है भ्रष्टाचार
जर्रे -जर्रे में'
मेरा देश --
'ये मेरा देश ।
बदल गया कैसे
सोचती हूँ मैं'
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'अपना देश
बेगाना व्यवहार
आधी आबादी '
साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक है ।वह अपने साहित्य के माध्यम से समाज में फैल रही विषम परिस्थितियों को विसंगतियों को उकेरता है और समाज को आईना दिखाता है। यह हाइकु संग्रह इसका ज्वलंत उदाहरण है ।जिसमें हर विषय पर लेखनी चली है। संग्रह के सभी हाइकु सहज व सरल भाषा में हैं। जो समाज की विसंगतियों के प्रति चैतन्य बोध उत्पन्न करते हैं---'कैसा अंधेर । नीचे छिपा फूलों के । बारूदी ढेर।' आज समाज में बेटियों की क्या स्थिति है ये किसी से छिपी नहीं है। एक माँ के मन की व्यथा को देखिए ---
घबराती हूँ। बेटी जाती है जब।अकेली कहीं।'
× × × ×
' सदियां बीती । आज भी लड़कियां। असुरक्षित ।'
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'कलियां तोड़ी ।मसल फेंक मारी । दानवता ने ।'
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' सदियां बीती । आज भी लड़कियां। असुरक्षित ।'
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'कलियां तोड़ी ।मसल फेंक मारी । दानवता ने ।'
ऐसे ही मर्मस्पर्शी हाइकु से रुबरु होंगे पाठक । कवयित्री में संवेदनशीलता के साथ -साथ भावुकता का गुण भी है। कुछ बानगी देखिए जिनमें मानवता, खुशी ममता, इनसानियत व मानवीय मूल्यों की भी झलक स्पष्ट दिखाई देती है । इसमें कोई संदेह नहीं कि विषय पर पूरी पकड़ बना लेने के बाद ही कवयित्री ने अपनी लेखनी उठाई है। कुछ और बानगियाँ देखें---
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'
तुम और मैं ।तकरार भरा है । जीवन सारा।'
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'पगों में बाँध । खुशियों के घुंघरू ।नाचती काश।'
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'शीतल छांव ।बन सके तो बन। धूप न बन।'
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'पगों में बाँध । खुशियों के घुंघरू ।नाचती काश।'
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'शीतल छांव ।बन सके तो बन। धूप न बन।'
हमारे जीवन में पर्वों - त्योहारों का बहुत महत्व है। होली ,दीपावली जैसे पावन पर्वों पर हाइकु न लिखे जाएं ऐसा तो नामुमकिन है।बानगी देखिए ---
'दीपों की लड़ी । जलती जिस घड़ी ।फैले उजास।'
'दीप शिखाओ। तुम्हारे ही दम से। मिटे अंधेरा।'
एक और बानगी -- रंग होली के।बदरंग न होंगे । रहते प्यार ।'
'त्योहार न्यारा।आया हर बरस।होली का प्यारा।'
× × × ×
' बरसे रंग
प्यार का चहुंदिश
तब है होली'
'दीप शिखाओ। तुम्हारे ही दम से। मिटे अंधेरा।'
एक और बानगी -- रंग होली के।बदरंग न होंगे । रहते प्यार ।'
'त्योहार न्यारा।आया हर बरस।होली का प्यारा।'
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' बरसे रंग
प्यार का चहुंदिश
तब है होली'
इन हाइकु में सकारात्मक संदेश तो मिलता ही है साथ-ही ये मनमोहक व रूचिकर भी हैं।इन्हें पढ़ते हुए मन उल्लसित होता है, इनसे बंध जाता है और कहीं -कहीं अन्तर्मन को झकझोरता भी है। कन्या भ्रूण हत्या पर माँ की विवशता पर एक चित्रण --- मजबूर थी
रीत जाने को कोख
भ्रूण थी कन्या ।
भ्रूण थी कन्या ।
जहां एक ओर समस्याएं हैं तो दूसरी ओर कवयित्री के पास समस्याओं का समाधान भी है सहनशीलता भी है ---' तूफां से लड़े ।लड़खड़ा के भी जो।पार जाता है।'
'
'
आंधी-तूफान
तोड़ पाये हौंसला
हमारा कब।'
तोड़ पाये हौंसला
हमारा कब।'
आज हाइकु विधा ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है । 'स्वर मौन के' पढ़ते-पढ़ते पाठक वर्ग महसूस करेगा कि ये हाइकु उन्हें झकझोर रहे हैं और मस्तिष्क कुछ बोल रहा है ।यह एक ऐसी विधा है जो कम शब्दों में विचारों की ,भावों की सशक्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। आदरणीय प्रदीप गर्ग 'पराग' जी ने उचित ही लिखा है कि ध्वनि बिना भी कर देते हैं झंकृत 'स्वर मौन के '।भाव संपदा से परिपूर्ण हाइकु संग्रह का हिन्दी काव्य जगत में स्वागत होगा ।अनुपम व बहुमूल्य कृति के लिए कवयित्री श्रीमती सुषमा भंडारी जी को हार्दिक बधाई ।शुभकामनाएँ।लेखनी अनवरत चलती रहे।साधुवाद ।
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