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विविध रंगों से परिपूर्ण एवं भावनात्मक अभिव्यक्ति है काव्य संग्रह 'यूं ही नहीं होती बारिशें'


सुरेखा शर्मा ,स्वतंत्र लेखन/समीक्षक ० 

पुस्तक --'यूं ही नहीं होती बारिशें' ( मुक्तछंद काव्य संग्रह  )
लेखिका --सुशीला शील राणा
प्रकाशन --अयन प्रकाशन-साहित्य पीडिया
प्रथम संस्करण -2021,मूल्य --300/₹,पृष्ठ -136

'कह न माँ
कभी तो दिख मुझे
मेरी डबडबाई आँखें
क्यों नहीं दिखती तुझे
बहुत नरम दिल था न तेरा
सपने में ही दिख, कहीं तो दिख माँ
कभी तो दिख ••••••
। '
 ये मार्मिक पंक्तियाँ है उर्जस्वी कलमकार ,वरिष्ठ साहित्यकार कवयित्री सुशीला शील राणा की सद्यप्रकाशित मुक्तछंद काव्य कृति 'यूँ ही नहीं होती बारिशें' की कविता 'कहीं तो दिख ' से । कविता प्रारंभ से मानव मन की प्रिय विधा रही है ।यह विधा अन्तर्मन के सच को,मन की संवेदनाओं को संक्षेप में व प्रभावी ढंग से कहने की क्षमता रखती है ।पाठक और श्रोता के मन पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ती है ।कवयित्री सुशीला शील राणा का यह काव्य संग्रह बारिश की बूंदों से अपने पाठकों के अन्तर्मन को अनंत गहराईयों तक छूने का प्रयास करेगा।

'यूँ ही नहीं होती बारिशें' काव्य संग्रह में छोटी -बड़ी 54 कविताएँ हैं। जिनमें मानवीय वस्तुरूप लक्षित है ।कविताओं में नारी जीवन की विडम्बना सजीव बनकर उभरी हैं ।कविताएँ- 'स्त्री होकर सवाल करती हो!',तुम हो दामिनी, औरतें,रेज़ा रेज़ा अस्मत, लड़कियो बोलो! इसी तरह की कई कविताएं हैं। एक बानगी देखिए --'तुम औरत हो/ भूल गई? जरा इज्ज़त क्या बख्शी/ हर दस्तूर भूल गई/तुम्हें शऊर ही नहीं/कि पहचान सको/कुछ संभ्रांत मुस्कुराहटों का सच ।'

आज के समाज में नारी की स्थिति, उसकी पीड़ा और उसके जीवन संघर्ष को शब्दों में पिरोकर कवयित्री ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश और समाज को एक संदेश भी दिया है ,बानगी देखिए -- लड़कियो बोलो! /आवाज उठाओ/उठाती रहो/तुम्हारे जलते शब्दों में/सत्य की समिधा हो/विवेक की अग्नि हो/संस्कारों का घृत हो/निर्भीकता का कपूर हो/राष्ट्भक्ति के श्लोक हों/संवेदना का जल हो/प्राणों की आहुति हो। कवयित्री ने अपने जीवनानुभवों की समृद्ध श्रृंखला को अपनी मानसिक परिपक्वता तथा गहन सर्जनात्मक दृष्टि से शब्दों को अभिव्यक्ति दी है। पुस्तक की शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए --मन के अथाह समन्दर की/जब थाह पा लेता है कोई /तो कोई थिर पानी में/मंद -मंद मदिर/उठती हैं चंचल लहरें/प्रेम के ताप से जलता है समन्दर। यूँ ही नहीं होती बारिशें' कवयित्री का दूसरा काव्य संग्रह है ।इससे पहले दोहा- संग्रह 'देह जुलाहा हो गई 'जिसने हिन्दी काव्य साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान स्थापित किया है।

काव्य संग्रह की कविताओं में कवयित्री के अनुभवों के उतार-चढ़ाव से उपजी अभिव्यक्तियां हैं,जिनमें एक ओर आस्था विश्वास का स्वर है तो दूसरी ओर रोजमर्रा की जिंदगी के वे प्रतिबिंब हैं जो कभी रोमांचित कर जाते हैं तो कभी उदास ।'मृत्तिका ' कविता इसका उदाहरण है, पंक्तियाँ देखिए -' देव की मूर्ति बन/भरती है श्रद्धा -विश्वास से मन /देती है निराश को आस/संघर्ष को ,जीवन को/नया विश्वास ।'

कविताओं में जीवन के अनेक रंग समाहित हैं।स्मृतियां हैं,प्रेम है, आत्मचिंतन है, समकालीन विचारधारा है । 'तुम्हारा प्रेम ' कविता की पंक्तियाँ कुछ ऐसा ही एहसास कराती हैं---'सुनो ! बहुत सताता है तुम्हारा प्रेम /अक्सर नींदों में सेंध लगाने लगा है /पलकें मूँदने से पहले /कर लेता है नींद से साठगांठ /ले जाता है दूर•••बहुत दूर ।' कविता जहां एक ओर आत्मा की अभिव्यक्ति है तो वहीं दूसरी ओर कवि कर्म भी है ।कवयित्री ने मानव मन की उलझनें एवं मन की दशा व अनुभूतियों को अपना मुख्य विषय बनाया है । संग्रह की कविताओं में जितना मज़बूत पक्ष उनकी सामाजिक -सांस्कृतिक चेतना है , उतना ही मज़बूत मानवीय और प्राकृतिक प्रेम भी है ।प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति समर्पण का भाव विशेष रूप से अभिव्यक्त हुआ है पेड़ -पौधे, पक्षी, नदियां, तालाब,समन्दर और पत्थर --इनके बहुत सारे बिम्ब अपने सौंदर्यात्मक स्वरुप में व्यक्त हुए हैं।कविता 'जज़्बात ' की बानगी देखिए --

'समंदरों से गहरे
पर्वतों से ऊंचे,झरनों से उन्मुक्त
नदियों से मचलते हैं जज़्बात
हवा की तरह होते हैं; दिखते नहीं/
मगर ज़िन्दगी को ज़िन्दगी देते हैं जज़्बात ।'

काव्य संग्रह को पढ़कर यदि अनुशीलन किया जाए तो हम पाएंगे कि कविताओं के कैनवास में वर्तमान के भोगे हुए यथार्थ, अपने अतीत की स्मृतियों और भावी सपनों का संसार रचने में सक्षम हैं।संग्रह की कविताओं में वर्तमान का खुरदरा यथार्थ दृष्टिगत होता है। कवयित्री अपनी कविताओं में उन दबे -कुचले कमजोर लोगों के जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविताओं के माध्यम से सामने लाने में भी सफल सिद्ध हुई हैं----'सड़क पर भविष्य 'कविता के माध्यम से उन्होंने बेसहारा बच्चों के जीवन का मार्मिक चित्र उकेरा है----'कचरे के ढेर पर /भिनभिनाते बच्चों को/नज़रे चुरा/अक्सर झूठन निगलते देखा है/लोग कहते हैं/ देश का भविष्य उज्ज्वल है। कविता अत्यंत ही मार्मिक बन पड़ी है साथ-ही व्यंग्य पुट भी लिए हुए है ।संग्रह में 'ठूंठ ,'शिल्पकार ', 'रंग', 'डर' जैसी सशक्त कविताएँ अच्छे उदाहरण हैं।

कवयित्री में समय के बदलाव को देखने व समझने की अद्भुत क्षमता है।कुछ प्रतीकों के माध्यम से वे कविता- 'नदी और जीवन' में कहती हैं ---'उड़ गए पखेरू /अब उजाड़ वीराने में/खुद को बहलाती हूँ /सूख गया है नीर /फिर भी /नदी तो कहलाती हूँ ।'कवयित्री के मन की व्यथा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है ।आज लोग स्वार्थी हो गये हैं।जो स्वार्थ की अंधी दौड़ में अपनेपन को खोते जा रहे हैं। रिश्ते भी बाजारवाद के प्रभाव से ग्रस्त हो चुके हैं। इसीलिए तो कहती हैं--'जीवन का आधार ही रही/कभी जल हो कर बही/कभी नींव में गड़ी/जिस रूप में ढाला/ ढली। माँ की तरह मिटती रही/धरती माँ की बेटी/धरती सी रही।'

इस प्रकार संग्रह में प्रेम व प्रीत के साथ-साथ रिश्तो की बुनियाद, सामाजिक परिवर्तन व चुनौतियों की भी अभिव्यक्ति है।संग्रह की कविताएं 'अगले जन्म मोहे बिटिया ही दीजौ ' व 'मेरे बच्चे ' संवेदनाओं को झंकृत करती हैं---'मेरे बच्चे! /तुम मात्र मेरा अंश ही नहीं /वंश मात्र भी नहीं/ हंस हो मेरे प्राण के।"

जीवन को शब्दों की परिभाषा में बांधना बहुत कठिन है । यह एक ऐसा समन्दर है जिसमें हर रोज नई लहर उठती है,नई तरंगे बहती हैं हर क्षण जिनका रूप बदलता है। हर दिन, हर पल कुछ न कुछ नयापन होता रहता है।इसलिए जीवन को शब्दों में अभिव्यक्त करना हो तो कविता ही सशक्त माध्यम हो सकती है । वे अपनी कविताओं में साफ कहती हैं---'हे दम्भी पुरुष ! /सदियों से छला है तुमने/कभी देवी -गृहलक्ष्मी / अन्नपूर्णा -अर्धांगिनी /हृदय -स्वामिनी -भामिनी/क्या -क्या नहीं पुकारा मुझे ? ' कवयित्री ने इस संकलन की कविताओं के माध्यम से जीवन के व्यापक प्रसार को शब्दबद्ध करनेे का प्रयास किया है । एक ओर जहां ढृढ़ता से मन के भीतर की बात कही है वहीं कोमलता से प्रेम की शाश्वत ध्वनियों के स्वर की मीठी गूंज भी है। 'तुम हो' कविता यही एहसास कराती है ---

'तुम नहीं हो/जानता है दिल/मानता नहीं
तुम्हारा प्रेम /आज भी सींचता है/मन की प्यास को
जब भी अकेली होती हूं/बरसता है/ गंगा -जमना बन
मेरी अंखियों से/भीग जाती हूं तरबतर।
'

यही नहीं कवयित्री शील राणा ने वर्तमान के यथार्थ को भी शब्दबद्ध कर रचना प्रक्रिया को सकारात्मक दृष्टि से अभिव्यक्त किया है ---''तुम आए /मरू में तपती रेत पर/ बारिश बनकर /जी उठी हूँ / सौंधी- सौंधी महक/मन भर/ तुम्हारे प्रेम की फुहार में/भीगी गया है मेरा तन- मन ।' 'एंटी वायरस ,इश्के हक़ीकी, धरती की गोद भराई, फूंक डालो, कल,डर,मैं बंकर हूं आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं जो समय की नब्ज़ को पकड़कर संवेदना के विविध आयामों को उजागर करती हैं।कवयित्री के पास समय को परखने की पैनी दृष्टि है।तभी तो बेबाकी से कहती हैः--' प्रेम मन की पुकार है /आत्मा की साधना है/ देह की भूख नहीं /रात के बिस्तर की तरह/बदल देने वाली चादर नहीं/नहीं रक्कासा का गजरा/यहाँ चढ़ा वहाँ उतरा।"

कवयित्री ने स्त्री को इन स्वरों की सरगम से मात्र तर्क ही प्रस्तुत नहीं किए अपितु मानवीय संवेदना की मूल चेतना को आत्मसात् भी किया है।स्त्री मन संवेदनशील होता है और वो भी कवि मन जो जीवन में देखता है भोगता है उसी को अपने शब्दों में अभिव्यक्ति दे देता है ।इस प्रकार सभी कविताएँ अपने शीर्षक को सार्थक करती हैं। सरल व सहज भाषा में काव्य संग्रह जीवन और जगत से प्राप्त अनुभूतियों के विविध आयामों को लेकर सत्यं शिवं सुन्दरं' के रूप मेंं उभरा है। कवयित्री बधाई की पात्र हैं।समस्त अनुभूतियां संदेशवाहक हैं।कविताओं में आशावादी स्वर है । मुक्त छंद में लिखी संग्रह की कविताएँ अपनी अलग ही पहचान बनाने में समर्थ हैं।सुधी पाठक 'यूँ ही नहीं होती बारिशें ' काव्य कृति का खुले हृदय से स्वागत करेंगे ।
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