0 परिणीता सिन्हा 0
कहाँ से लाऊँ वो शब्द ,
जो पिता को आँक सके,
कैसे बयां करूँ वो दर्द,
जो कोई माप सके ।
पिता का होना और फिर न होना,
जैसे भींग कर, फिर सूख जाना ।
पिता से पिता बनने का सफर,
है जैसे ढलती दोपहर ।
तन से बहता है पसीना,
फिर भी लगे ही रहना ।
सारी ममता माँ के हिस्से आती
और सारी सख्ती पिता निभाते ।
जब घटाएं घिरी हो घनघोर,
तब पिता ही बनते ठोर ।
अपमान का घूँट भी पी जाते,
फिर भी एहसान नही जताते ।
घड़ी की सुइयों की भाँति ,
पिता अनवरत ही घूमते
फिर भी थकान नही बताते ।
जब हम उनके स्थान पर आते,
तभी उनकी स्थिति का,
सही आकलन कर पाते ।
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