सड़क किनारे
मज़दूरी करती युवती पर
सब निशाना साधते
और भाग्य आज़माते
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विधवा औरत
खंडित प्रतिमा की मानिंद
अपशकुनि समझी जाती
घर के अहाते में रहने को विवश
निष्कासन के भय से आशंकित
आंसुओं के सैलाब में डूबी
अपना जीवन ढोती
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घर को स्नेह,सौहार्द से
आप्लावित रहने दो
कहीं अजनबीपन का अहसास
इसे लील न जाये
और ज़िन्दगी मरु बन जाये
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हर लम्हा तेरी
इबादत में गुज़रे
और ज़िन्दगी इक हसीन
मंज़र बन जाये
न रहे शिक़वा
न शिकायत कोई
मैं और तुम का भेद
जहान से मिट जाये
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ख़ुद से ख़ुदी का सफ़र
तय करने के पश्चात् भी
अहंनिष्ठ इंसान
भीड़ में रहते हुये भी
स्वयं को तन्हा पाता
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