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कविता // विधवा औरत खंडित प्रतिमा की मानिंद

 
डॉ० मुक्ता ० 

सड़क किनारे 

मज़दूरी करती युवती पर

सब निशाना साधते

और भाग्य आज़माते

            ◆◆◆

विधवा औरत 

खंडित प्रतिमा की मानिंद

अपशकुनि समझी जाती

घर के अहाते में रहने को विवश

निष्कासन के भय से आशंकित

आंसुओं के सैलाब में डूबी

अपना जीवन ढोती

            ◆◆◆

घर को स्नेह,सौहार्द से

आप्लावित रहने दो

कहीं अजनबीपन का अहसास

इसे लील न जाये

और ज़िन्दगी मरु बन जाये

            ◆◆◆

हर लम्हा तेरी

इबादत में गुज़रे

और ज़िन्दगी इक हसीन

मंज़र बन जाये

न रहे शिक़वा

न शिकायत कोई

मैं और तुम का भेद 

जहान से मिट जाये

            ◆◆◆

ख़ुद से ख़ुदी का सफ़र

तय करने के पश्चात् भी

अहंनिष्ठ इंसान 

भीड़ में रहते हुये भी

स्वयं को तन्हा पाता

            ◆◆◆

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