० विजय सिंह बिष्ट ०
ये जिंदगी भी क्या है
ये जिंदगी भी क्या है
भार बनती जा रही है।
जीवन के सारे दुःख दर्द
तन मन में समाये जा रहे हैं,
नित्य नए रूप में आकर,
नूतन घर बनाये जा रहे हैं।
तन मन जलाए जा रहे हैं।
आज बेसुरे हो गये हैं,
गीत अपने ही रसीले।
शोले जैसे बरस रहे हैं,
आंख से बहते अश्रु गीले।
काटने को जिंदगी स्वयं ही,
पैनी धार बनती जा रही है
ये जिंदगी भी क्या है,
भार बनती जा रही है।
गांव अपना ही पराया ,
देश ही परदेश जैसा।
मीत ही विपरीत बनकर,
कर रहे व्यवहार कैसा?
आज जिंदगी की नाव भी,
भंवर में डूबती जा रही है।
ये जिंदगी भी क्या है?
भार बनती जा रही है।।
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