० डॉ मुक्ता ०
औरत का अंतर्मन
गहरे सागर की मानिंद
अनगिनत तूफ़ान, भावोद्वेलन
व कटु-मधुर स्मृतियों का आग़ार
परंतु वह सदैव रहती निमग्न
खुद के सुख-दु:ख से बेखबर
गीली लकड़ी की तरह
धुंधुआती,सुलगती
आंसुओं रूपी जल का
प्रसाद-सम आचमन करती
कठपुतली-सम
सबके आदेशों की अनुपालना करती
'सहना और कुछ नहीं कहना'
को अपनी नियति समझ
सदैव मौन रह कर
अपना जीवन बसर करती
एक टिप्पणी भेजें