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कविता // औरत का अंतर्मन


० डॉ मुक्ता ० 

औरत का अंतर्मन

गहरे सागर की मानिंद

अनगिनत तूफ़ान, भावोद्वेलन

व कटु-मधुर स्मृतियों का आग़ार 

परंतु वह सदैव रहती निमग्न

खुद के सुख-दु:ख से बेखबर

गीली लकड़ी की तरह

धुंधुआती,सुलगती

आंसुओं रूपी जल का

प्रसाद-सम आचमन करती

कठपुतली-सम

सबके आदेशों की अनुपालना करती

'सहना और कुछ नहीं कहना' 

को अपनी नियति समझ

सदैव मौन रह कर

अपना जीवन बसर करती

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