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कविता // अन्नदाता और शासन


0 विजय सिंह बिष्ट

 अन्नदाता और शासन

गुलामी की जंजीरें तोड़ी,

लिखी जिन्होंने अमर कहानी।

भूखे मरते दंमित लोगों को,

दिया नवजीवन,नयी जवानी।

एक इशारे पर पथ धो डाला,

दंम्मी शासन चूर चूर कर डाला,

मातृभूमि का रक्षक और पुजारी,

नील गगन के नीचे कर डाला।

हंसती जिनके खून पसीने से,

लहराती हरियाली उनके खेतों में

त्याग कुदाली, हंसिया और ट्रैक्टर,

लिए तिरंगा कर्मठ हाथों में।

वही स्वावलंम्बी स्वाधीन कृषक,

जो अन्नदाता और जीवन दाता है,

क्यों नील गगन के नीचे सोया है?

क्या सचमुच उसने कुछ खोया है?

शासन और कृषक दोनों रक्षक,

 एक जीवन पालक , एक प्रजा रक्षक।

दोनों एक ही पथ के अनुगामी हैं,

दोनों ही भारत के सच्चे पुजारी हैं। 

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