० योगेश भट्ट ०
नई दिल्ली, विश्वग्राम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच के संयुक्त तत्त्वाधान में “वैश्विक आंतकवाद बनाम इंसानियत, शान्ति एवं संभावनाएं” विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन इंडिया हैबिटेट सेंटर में संपन्न हुआ । इसमें अफगानिस्तान के विशेष सन्दर्भ में ‘कट्टरतावाद एवं विभाजन की रेखा’ पर विचार- विमर्श किया गया।
इस संगोष्ठी का आयोजन डॉ. इंद्रेश कुमार (राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), आदरणीय आरिफ मोहम्मद खान (माननीय राज्यपाल, केरल), परम आदरणीय स्वामी चिदानंद सरस्वती (परमार्थ निकेतन) एवं दीवान सैय्यद जैनुलब्दीन अली खान (अध्यात्मिक शीर्ष, अजमेर शरीफ दरगाह) के संयुक्त संरक्षण में संपन्न हुआ। संयोजक मंडल में प्रो. गीता सिंह, प्रो.आर.बी. सोलंकी, प्रो. अशोक सज्जन हर, श्री नागेंद्र चौधरी, श्री मोहम्मद अफ़ज़ल, प्रो. शहीद अख्तर, प्रो. संजीव कुमार एच. एम., प्रो. एम. महताब आलम रिज़वी, श्री प्रवेश खन्ना और श्री विक्रमादित्य सिंह इत्यादि शामिल थे। साथ-ही-साथ राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय जैसे अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिआ मिलिया इस्लामिया, जामिआ हमदर्द, मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय एवं केंद्रीय विश्वविद्यालय कश्मीर भी जुड़े हुए थे।
कार्यक्रम के उद्बोधन में डॉ. इंद्रेश ने कहा कि, "विश्व आज भी आतंकवाद, हिंसा व कट्टरवाद की गंभीर समस्याओं से घिरा हुआ है। इन्ही कारणों से अब भी हमें ऐसे दमनकारी शासक व असहिष्णु समाज पनपते दिख जाते हैं जो अपने ही लोगों का धार्मिक कट्टरवाद के नाम पर शोषण करते हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ऐसी परिस्थितियों का नवीनतम उदाहरण बनकर उभरा है, जो वैश्विक आतंकवाद द्वारा हमारे अस्तित्व का दीदार ही भयावह चुनौती की एक अभिव्यंजना है। इस चुनौती का सामना करने का एक उपाय यह है कि वैश्विक आतंकवाद के विरूद्ध अतींद्रिय मूल्यों को हम अपना उपकरण बनाएं। भारत, जो की अनेक धर्मों की भूमि है, जिसकी संस्कृति सहिष्णु व समावेशी है और जिसका समाज अपने अनेकों त्योहारों को गर्व से मनाता है, इस सन्दर्भ में मार्ग दर्शक बन सकता है। अनेक संस्कृतियों को अपने में समेट लेने वाली भूमि के रूप में भारत की अवधारणा विश्व के लिए समावेशी समाज गढ़ने का एक उपयुक्त आदर्श बन सकती है।"
प्रो. गीता सिंह ने अपने गोष्ठी के विषय को प्रस्तावित करते हुए कहा, "जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया, तो वहाँ की आतंकित महिलाएं बुरक़ों की खरीद-फ़रोस्त में जुट गयीं, यह भली-भाँती समझते हुए कि उन्हें और उनकी आकांक्षाओं को तालिबान अपनी आद्य ज़ंजीरों में जकड़ने वाला है। मानवता के आधे अंश को कट्टरपंथी आतंकवाद से जो विशाल खतरा है, उसे समझने के लिए हाल ही में आइ सि स द्वारा महिलाओं पर किये गए जघन्य शारीरिक, मानसिक, व सामाजिक ज़ुल्मों को याद करना ही पर्याप्त होगा। यह एक विडम्बना ही है कि लाखों मुसलामानों का घर, अनेक संस्कृतियों का संगम, व एशिया की अर्थव्यवस्था का एक इंजन होने के बावजूद दक्षिण एशिया आज भी इस्लामी कट्टरपंथियों व उनकी आतंकी गतिविधियों के प्रति अनुकूल है। तालिबान से हुजी, जैश-ए-मोहम्मद से इंडियन मुजाहिदीन तक, विश्व के कई खूंखार व बर्बर जिहादी संगठन यहां आम मुसलामानों के सामाजिक व आर्थिक संघर्षों, और उनकी असुरक्षा की भावना, का फायदा उठाकर पनप रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे कई जिहादों का जन्म भारत के एक पड़ोसी मुल्क से ही होता रहा है, जिन पर नियंत्रण पाना हमेशा ही दिल्ली की विशेष प्राथमिकता रही है।"
आर.के सिंह, प्रकाश जावेड़कर, डॉ जीतेन्द्र सिंह, न्यायमूर्ति बालाकृष्णन, श्री अशोक सज्जनहर, प्रो. फनज़मा अख्तर, प्रो. फतलत अहमद, श्री मुकेश भट्ट, न्यायमूर्ति एम् एस ऐ सिद्दीकी, प्रो. पी. बी. शर्मा, लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अताहसनैन, मेजर जनरल ध्रुव कटोच, प्रो. जे. पी. शर्मा, प्रो. एस. ए. नुलहसन, प्रो. अफसर आलम, प्रो. संजीव कुमार एच. एम. प्रो. के. वारीक, पी. स्टॉपडन, डॉ. विक्रम सिंह, श्री प्रफुल्ल केतकर, प्रो. ज़फर सहितो, प्रो. के. जी. सुरेश, प्रो. के रत्नम, प्रो. अरविन्द कुमार ।
अत्यंत कठिन विचार-विमर्श के बाद, प्रतिभागियों ने आमतौर पर इस धारणा पर सहमति व्यक्त की कि वैश्विक आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता राष्ट्रीय और साथ-ही-साथ मानव सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा है। इन विचारों के आधार पर, प्रतिभागियों ने गंभीरता से संकल्प लिया एवं एक दिल्ली घोषणा प्रस्तुत की- जिसमें काफी हद तक इस बात पर जोर दिया गया था कि- भारत अपने विस्तृत एवं बहुआयामी सांस्कृतिक -राजनीतिक रूप से बुने ताने-बाने को देखते हुए, दक्षिण एशियाई कट्टरवादी आतंकवाद को लगातार एकतरफा और बहुपक्षीय प्रयासों के बावजूद भी उन्हें समाप्त करने में असफल रहा है। इसलिए, यह और भी आवश्यक है कि ऐसे प्रयास लगातार सशक्त और सुव्यवस्थित होते रहें। इस संबंध में, भारत को, दक्षिण एशियाई देशों के केंद्र में एक भौगोलिक, जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सांस्कृतिक शीर्षर्थ के रूप में, कैलाश से कन्याकुमारी तक की भूमि को सुरक्षित करने का दायित्व, जिम्मेदारी पूर्वक निर्वहन करना चाहिए।
अफगानिस्तान पर तालिबान का शत्रुतापूर्ण कब्जा, आई. एस. आई. एस. -खोरासन के साथ उसका युद्ध और उसके प्रतिगामी सामाजिक-राजनीतिक आरोप निंदनीय और खेदजनक हैं। इन चिंताजनक बदलावों ने न केवल अफगान समाज, संस्कृति एवं नागरिकों की प्रगति को रोक दिया है, बल्कि इसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी पंगु बना दिया है। भारत के साथ अफगानिस्तान का संबंध, जिसकी एक समृद्ध और सहस्राब्दी पुरानी विरासत रही है, अब अनिश्चितता और चिंता के दौर से गुजर रहा है। काफी लंबे अरसे से अफ़ग़ानिस्तान में अच्छी समझ एवं लोकतांत्रिक माध्यमों की वापसी को प्रोत्साहित करते हुए, भारत को कट्टरपंथी लहरों के लिए भी सतर्क और तैयार रहना चाहिए, जो विशेष रूप से पाकिस्तान के माध्यम से अफगान की धरती से बाहर की ओर फैल सकते हैं।
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